डॉ दिवाकर चौधरी
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डॉ दिवाकर चौधरी

कल्याणी प्रतिभा हो मेरी, मधुर वर्ण-विन्यास न केवल||Copyright@डॉ दिवाकर चौधरी इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

खो गए हैं

खो गए हैं स्वार्थान्धकार में मानव की मानवता,पुरुषों का पुरुषार्थ औरत की पवित्रता,पापी का पश्चाताप प्रेम भाई के प्रति भाई का, पिता-प्रेम मानव का मानव-मात्र

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सूरज

देखो उस अविश्रांत पथिक को उज्ज्वल नभ के स्वर्ण-पुरुष को खुद जल,जग ज्योतिर्मय चलता पथ पर धीरे-धीरे नहीं किसी का है गुलाम निष्काम जगत की

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निर्झर

देखो उस नदी को,निर्झर को नदी की नाद कल-कल, छल-छल निर्झर की झर-झर, झहर-झहर यह हास नहीं नदी-निर्झर की जीवन की भी यह शाश्वत है

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जीवन की ओर

धारा चल जीवन की ओर जीवन की किसी मरुभूमि को कर सिंचित,चल जग की ओर धरा के उर्वर कितने कोने, मरू,नागफनी उगे परे हुए तू

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प्रार्थना

पाप-अनल से घिरा हुआ जग, मनुज दुखी रोता है दया करो हे! जग-दुःख-त्राता, दास विनती करता है कृपासिंधु तुम! बूंद कृपा की, जीवन पर बरसा

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भूल गया अब याद नहीं

भूल गया अब याद नहीं कुछ मानव को जीवन में अर्थ-अर्थ की दौड़ लगी है जीवन के प्रांगण में भूल रहा मानव मानवता अर्थ-स्वार्थ-चिंतन में

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स्वप्न

मैंने देखा… हिमकर की उस प्रशांत रात्रि में मन की धवल, तन कोमल-श्यामल चहरे पर मुस्कान मनोहर गाती एक गीत जाती थी मेरे भ्रमित-पथिक मन

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जीवन

सुख भी जीवन, दुःख भी जीवन सुख में जो हँसी, दुःख में क्रंदन सुख का श्रृंगार है – हास-विलास सुख की शोभा- कामिनी-कंचन दुःख की

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जाग मनुज अब

जाग मनुज अब हुआ सबेरा विहग-वृन्द ने तरु-वृंत पर निकल नीड़ से डाला डेरा नव-प्रभात की प्रथम किरण में खग-कुल ने मधु गान है छेड़ा

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