वक़्त की टहनी पे अब भी खिल रहा हूँ मैं
वक़्त की टहनी पे अब भी खिल रहा हूँ मैं । राह तेरे लौटने की देखता हूँ मैं । बिन तेरे कैसे जिऊँगा सोचता हूँ
वक़्त की टहनी पे अब भी खिल रहा हूँ मैं । राह तेरे लौटने की देखता हूँ मैं । बिन तेरे कैसे जिऊँगा सोचता हूँ
तीर जितने उसने मारे सब निशाने पर लगे । ज़ख्म सब के सब पुराने ज़ख्म से बेहतर लगे । हो गया है जाने मुझको क्या
एक पत्थर और मारो अब तलक़ ज़िंदा हूँ मैं । या कोई ख़ंजर निकालो अब तलक़ ज़िंदा हूँ मैं । है बदन छलनी मगर इन
धूप का पर्वत खड़ा है सामने । और लम्बा रास्ता है सामने । फिर कोई मासूम सी चाहत जगी । फिर भरम का सिलसिला है
ऐसा तो कुछ नहीं कि मर ही जाएं ख़ुशी से । औ ग़म भी गुज़रते नहीं हैं अपनी गली से । उस चाँद सी हँसी
यादों के आईनों में रह जाते हैं । जाने वाले आंखों में रह जाते हैं । ख़ुशबू बन कर उड़ते हैं फिर बाग़ों में ।
हमें सुनाती ज़िंदगी , तन्हाई का गीत । भरते-भरते उम्र की , गई गगरिया रीत । मेघों के संग आज फिर , उड़ी तुम्हारी याद
फिर घुमड़ी आकाश में , बादल बादल भोर । अब के जाने क्या करे , ये मौसम घनघोर । आंगन में आकाश से , उतरी
मिटा अंधेरा रात का , उतरी मन में भोर । आंखों में कलियां खिलीं , नयनों नाचे मोर । उड़ती फिरती बाग में , संग
इन्सां मर भी जाये चेहरा रह जाता है । अब्बा चल देते हैं बेटा रह जाता है । किसने किसको चाहा किसने नफ़रत की थी