हाशिये हैं

सुर्खियाँ ढो रहीं वहशत

प्रीत ख़ातिर हाशिये हैं

मेमनों के मुखौटों में

घूमते अब भेड़िये हैं !

चबाते नाकों चने जो

नेकियों की राह चलते

अजब यह सनकी समय है

बबूलों में आम फलते

गहन है पहचान-संकट

हर तरफ बहुरुपिये हैं !

पुष्पगंधा घाटियों में

दहकते हर सिम्त शोले

आदमी गूंगा हुआ है

बे-रहम बंदूक बोले

बुलबुलों के बगीचे में

बाज कुछ घुसपैठिये हैं !

सियासी शतरंज की हैं

बिछ गयी हर सू बिसातें

पेंचवाली चाल गहरी

दाँव शातिर , घाघ घातें

आज भी जेता शकुनि है

युधिष्ठिर हारा किये हैं !

Facebook
WhatsApp
Twitter
LinkedIn
Pinterest

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

रचनाकार

Author

  • डॉ रवीन्द्र उपाध्याय

    प्राचार्य (से.नि.),हिन्दी विभाग,बी.आर.ए.बिहार विश्वविद्यालय,मुजफ्फरपुर copyright@डॉ रवीन्द्र उपाध्याय इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है| इन रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है|

Total View
error: Content is protected !!