स्त्री

अपने सपनों में से
अपनों के सपनों को बीन-बीन कर निकालती है।
स्त्री कुछ ऐसी ही रची गयी
जिन पे छत टिकी, उन दीवारों को संभालती है।

कहाँ गिने हैं दिन अपनी उम्र के उसने
मशगूल गिनने में है वो मुस्कान तुम्हारी।
फर्श पर चलते-चलते ही नाप ली है धरती
तुम्हें पकाने में रही शबरी कच्ची बन नारी।

तुम फेंक आना अपने गर्व को
जब जाओ उसके पास।
पैरों पे तुम्हें खड़ा करने को
वो इतनी ऊंची, आसमानों को भी खंगालती है।

उघाड़े बचपन ने भी तो शाहों के मुकुट ने भी
लिया है आश्रय उसी के दूध भरे वक्षों में।
पायी है जितनी निश्चिंतता गोद में उसकी
कहाँ था आराम उतना स्वर्ण-हीरे के कक्षों में?

ईश्वर से निकला था ईश्वर
योग-यज्ञ सम्पूर्ण हुआ।
होके सृजित हर युग में,
करती सृजन समझा जिसे मधुमालती है।

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रचनाकार

Author

  • डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

    शिक्षा: विद्या वाचस्पति (Ph.D.), सम्प्रति: सहायक आचार्य (कम्प्यूटर विज्ञान), साहित्यिक लेखन विधा: कविता, लघुकथा, बाल कथा, कहानी, 11 पुस्तकें प्रकाशित, 8 संपादित पुस्तकें, 32 शोध पत्र प्रकाशित, 30 राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त, डाक का पता: 3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002. Copyright@डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी /इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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