सोचता हूँ दर्द को घड़ी बना दूं ,
और मैं बाहर बैठा,
देखता रहूँ,
उसको, एक बिंदु के चारो तरफ घूमता हुआ l
और देखता रहूँ,
घंटा,मिनट और सेकंड की सुइओ को
उस दर्द के अंतराल को
कम ज्यादा करता हुआ ll
तुम घड़ी के दूसरी तरफ से देखना,
या फिर उसकी छाया देखना ll
जिससे बना रहेगा एक भ्रम
कभी मुझको,
तो कभी तुमको ,
कि दर्द कम हो रहा है l
सुख धीरे धीरे पास आने को
तैयार हो रहा है ll
शायद उसी भ्रम की घड़ी से ,
गिरते रहें ,
लम्हों के कुछ पल,
कभी थोड़ा छल,
तो कभी निश्छल ll
माना दर्द दो धड़कनों के बीच में
खुद को सुरक्षित रखेगा l
मगर ये भ्रम, हमको
दुःख के असल ख़्वाब से
वंचित रखेगा ll
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