सिकन्दर

सिकन्दर

प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद श्री सत्यमित्रानन्द जी ने उचित ही कहा है कि सन्यासी को सम्पत्ति निर्माण में रस आने लगे तो उसका सन्यास नष्ट हो जाता है ।इस सूत्र को सन्यास की कसौटी माने तो देश में सन्यासी गिनती के रह जाएंगे।सभी के तो अकाउंट नम्बर चैनलों पर फ्लैश हो रहे हैं ।एक सन्यासी से विजेता सिकन्दर से मुलाकात हुई थी ।सुदूर वन में,नीरव एकांत में,प्रचंड धूप में एक पेड़ के नीचे शांत भाव से बैठे सन्त को देखकर सिकन्दर को लगा कि इतने घने जंगल में जहाँ दूर दूर तक जीवन नहीं है,यहाँ ये महाराज क्या कर रहे हैं।पास जाकर देखा वो वीतरागी जिनके शरीर पर वस्त्र के नाम पर केवल एक लँगोटी थी।सिकन्दर ने पूछा यहाँ क्या कर रहे हो।सन्त ने कहा जो तुम कभी नहीं कर सकते।सिकंदर फिर बोला मैं क्या नहीं कर सकता ये तुम कैसे कह सकते हो।सन्त बोले तुम वीतरागी नहीं बन सकते।त्यागी नहीं बन सकते तुम्हें सन्सार पर विजय पाना है और मुझे खुद पर।सिकन्दर ने कहा तो क्या तुम्हें बिल्कुल मोह नहीं रहा?सन्त ने कहा अभी कुछ है।सिकंदर ने कहा क्या मोह है?सन्त बोले ये लँगोट मुझे बार बार बस्ती में ले जाती है जिस दिन इसका भी मोह छूट जाएगा न,उस दिन मैं परमहंस हो जाऊंगा।सिकंदर ने कहा तो तुम्हें पाने से ज्यादा खोना कठिन लगता है ।सन्त ने कहा बिल्कुल सही।पाने का क्या है नीयत और इरादा बनाकर आदमी दुनियां की हर चीज पा सकता है लेकिन पाए हुए को त्यागना जरा कठिन है भाई।तुम्हारा लाव लश्कर तो यही बताता है कि तुमको इतने पर भी संतोष नहीं और चाहिए ।मारो लोगों को,छीन लो उनसे सबकुछ ।सन्त की बात सुनकर सिकन्दर का माथा ठनका।सिंकन्दर बोला कुक चाहिए तो मुझसे ले सकते हो।सन्त बोले तुम्हारे पास देने को धन के अलावा कुछ है नहीं।कहते हैं सिकन्दर गहरे सोच में चला गया और उसने प्रणाम किया सन्त को और बोला किससे बड़े सुने थे भारत के त्याग के लेकिन आज महसूस हुआ ,भारत को कभी कोई लूट नहीं सकता ,उसकी असली दौलत तो आप जैसे तपस्वी सन्त है।

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रचनाकार

Author

  • त्रिभुवनेश भारद्वाज "शिवांश"

    त्रिभुवनेश भारद्वाज रतलाम मप्र के मूल निवासी आध्यात्मिक और साहित्यिक विषयों में निरन्तर लेखन।स्तरीय काव्य में अभिरुचि।जिंदगी इधर है शीर्षक से अब तक 5000 कॉलम डिजिटल प्लेट फॉर्म के लिए लिखे।

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