कलियों की कनखियाँ, फूलों के हास
क्यारियों के दामन में भर गया सुवास
बागों में लो फिर वसन्त आ गया !
मलयानिल अंग- अंग सहलाता जाये
मंगल के गीत मगन कोयलिया गाये
पतझड़ की पीड़ा का अन्त आ गया !
पतझड़-दुःशासन था खींच रहा चीर
प्रकृति – पांचाली के नयन भरे नीर
हरित वसन लेकर अनन्त आ गया !
धरती पर पाँव नहीं , गीत गुनगुनाये
कौए को दूध-भात प्यार से खिलाये
गोरी का परदेसी कन्त आ गया !
बागों में लो फिर वसन्त आ गया ! !
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