मजहब

मजहब

हम सब
अपने अपने धर्म के
तरफदार हैं
मगर धर्म है कहाँ
मंदिर में देखा तो
मूर्तियां मिली
घण्टी,घड़ियाल
दीप धूप बत्ती मिली
मगर धर्म न मिला
मस्जिद में भी
तलाशा मजहब
नहीं मिला
पुकारता रहा यहाँ
मजहब है तो बाहर आए
कोई नहीं आया
गुरुद्वारे में तो
बहुत गहमागहमी थी
लोग सजे धजे
लगे थे मत्था टेकने में
पुकारा अरे भाई
यहाँ धर्म है तो
आए बाहर और दर्शन दे
सन्नाटा कोई नहीं आया
गिरिजाघर में भी
सफेद वस्त्रधारी
मोमबत्तियां जला रहे थे
आंख बंद कर कुछ
कह रहे थे किसी से
यहाँ भी आवाज लगाई
अगर हो धर्म तो
बाहर आए,क्यों नहीं आता बाहर
अचानक आकाशवाणी हुई
तुम मुझे यहाँ क्यों
पुकारते हो?
हमने कहा यही तो
पता है
तुम्हारे मिलने का
आकाश से जोर का
ठहाका सुनाई दिया
फिर एक गम्भीर आवाज
मैं इन दीवारों में नहीं बन्धु
दिलों में रहता हूँ
हाँ कभी यहाँ भी
आराम के लिए रुकता था
लेकिन अब यहाँ ठहरने से
जी घबराता है
मैं धर्म हूँ दया का पुत्र
करुणा ने मुझे देह दी
संवेदना ने आंखें
और प्रेम ने मुझे सांसें दी
मुझे दान ने पैर दिए
और मान ने मस्तक दिया
सहनशीलता ने मुझे
त्वचा दी
और अस्थियां उपकार ने दी
मेरी देह कई उपादानों से बनी
और ईश्वर ने एक जबाबदारी दी
मैं वहीं रहूंगा जहाँ
मेरे निर्माताओं को
दया,प्रेम,करुणा,संवेदना को
मानने वाले लोग हो
जहाँ इनके ठहरने की
जगह नहीं
वहाँ मैं नहीं रहता
मैंने पूछा तब अभी तुम कहाँ हो
वो शालीन स्वर में बोला
जहाँ पवित्र अंतःकरण के लोग
प्रेम से परिपूर्ण होकर
मुझे अपने प्रत्येक कर्म में
धारण करते हुए
सम्पूर्ण विनम्रता से
मानव सेवा में अभिरत हो
वहाँ मैं मिलूंगा
जहाँ किसी की गलती पर
सज़ा देने वालों का नहीं
बल्कि क्षमा करने वालों का समूह हो
जहाँ जान लेने वाले नहीं
जान बचाने वाले लोग हो
जहाँ हर कोई आमादा हो
आचरण स्खलित को
बाँह फैलाकर उठाने के लिए
वहाँ मैं मिल जाऊंगा
ॐ नमः शिवाय

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रचनाकार

Author

  • त्रिभुवनेश भारद्वाज "शिवांश"

    त्रिभुवनेश भारद्वाज रतलाम मप्र के मूल निवासी आध्यात्मिक और साहित्यिक विषयों में निरन्तर लेखन।स्तरीय काव्य में अभिरुचि।जिंदगी इधर है शीर्षक से अब तक 5000 कॉलम डिजिटल प्लेट फॉर्म के लिए लिखे।

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