मैं सोचता हूँ सिद्धार्थ ने,
शहर घूमनें की इच्छा क्यों की होगी?
कैसे उनका मन ग्रंथों को पढ़ते समय,
मन को गढ़ते समय ,
जीवन के पौधे को मुरझाते देखते समय ,
विचलित नहीं हुआ होगा ?
कहीं पत्नी से कोई बात तो न हुई होगी !
कहीं कोई बात उनको तो न चुभ गई होगी !
जैसे रत्नावली की लताड़ पर ,
रामबोला तुलसीदास होकर प्रसिद्ध हो गए l
कहीं वैसा ही तो कुछ न हुआ होगा,
सिद्धार्थ यूँ ही तो ,
गौतम बुद्ध न बना होगा ll
जो माया के बीच में रहता हो ,
सारे सुख भोगता हो,
फिर अचानक कैसे,
एक रात यशोधरा और राहुल को छोड़,
बुद्ध बनने निकल पड़ा होगा !
कई औरते आदमियों को ,
यूँ ही बुद्ध बना देती हैं ,
कभी व्यवहार से ,
कभी बुद्धि से l
कभी आत्म शुद्धि से ll
कभी तंज वाली बातें,
कभी बेरंग मुलाकातें,
सांसारिक व्यक्ति को,
आध्यात्मिक करती होंगी l
माना सभी न सही,
कुछ लोग की मंज़िल,
ज़रूर अलग होती होगी ll
सभी आदमी, रात का इंतज़ार नहीं करते होंगें,
कुछ दिन के उजालों में ,
ही निकलते होंगें बुद्ध बनने l
असफल भी होते होंगे,
पर फिर भी अंदर ही अंदर ,
कहीं किसी कोने में ,
बुद्ध हो रहे होंगे ll
तो कोई आदमी,
घर की चार दिवारी में,
उसी माया मोह में रहकर,
मोह त्याग रहा होगा l
अंदर ही अंदर,
मैं को मार रहा होगा ll
इसलिए , शायद
आदमी का ह्रदय पाषाण होता है,
ये भी बात तो सही सही सी लग रही ,
कि आदमी के बदलने के पीछे,
एक औरत का भी हाथ होता है ll