पता है,
तुमको खोजता हूँ मैं,
कभी
कोलंबस की तरह ,
तो कभी कस्तूरी मृग की तरह l
पर, तुम मिलती ही नहीं l
हाँ, सच मानिए……….
मिलती ही नहीं,
कहीं भी, कभी भी ll
मैं थक जाता हूँ,
तन से और मन से ,
पर खोज जारी रहती है ll
वैसे ही, जैसे
चातक पंक्षी प्यासा रहकर भी,
दरिया नदियों के पास रहकर भी,
इंतज़ार करता है,
वर्षा की पहली बूंदों का ll
मैं भी इंतज़ार करता हूँ,
तुमसे रूबरू होने का ll
अक्सर,
जब मैं अर्ध निंद्रा में होता हूँ ,
थोड़ा,
हाँ बहुत थोड़ा
“मैं” के साथ होता हूँ l
तो तुम ,
कहीं आती हुई सी दिखती हो l
काली अमावस रात्रि में,
अमलतास बन,
सारे तम हरती हुई सी लगती हो l
धीरे धीरे मैं पूर्ण निंद्रा से
चिर निंद्रा में चला जाता हूँ l
तुम वहीं पास रहती हो,
क्योंकि “मैं”, “मैं” को छोड़ चुका होता हूँ ll
फिर जब खुलती है निंद्रा,
टूटती है, चुप्पियाँ
और जग पड़ती है “मैं ” छोड़ अपनी चिर निंद्रा
तो फिर तुम नहीं दिखती ll
मैं फिर से खोजता हूँ,
सभी कमरों में,
सभी अलमारियों में ,
पर तुम नहीं मिलती ll
क्या तुम भी खोजती हो मुझे?
जैसे मैं खोजता हूँ तुम्हें?
कभी सपने में ही सही,
मिलो,
हाँ, तुम भी आना वो अपना “मैं” को
संदूखों में रख कर,
मैं भी चाहता हूँ मिलना
बिना “मैं” के “मैं” से ll