देखा है उन्हें

देखा है उन्हें उदास मैंने
हताश नहीं
थकते देखा है
टूटते नहीं

बाढ़ बहा ले जाती है
ख़ून-पसीने से उगायी फसल
झुलसा देता है सूखा
हरिआयी रबी जब
देखा है उन्हें गंभीर,ग़मगीन , गुमसुम
शून्य में निहारते
अपने आप से बतियाते!

रहता है चार-छह दिन
चुप-चुप चौपाल
हुलस कर नहीं पूछा जाता
परस्पर हाल-चाल
चार-छह दिन
नहीं गूँजती भिनसार में
बीरन बाबा की पराती
किशुन काका नहीं करते
किसी से हँसी-दिल्लगी !

लगती है अँखुआने
उनके ख़यालों में फिर
नयी फसल
चिकोटी काटने लगती है
बीज की चिन्ता
दूर-दूर से तलाश लाते हैं बीज
अगली बुआई की ख़ुशी में
भूल जाते हैं पिछली खीझ

फूटने लगते हैं होठों पर उनके
फिर-फिर
ऋतुगीत
कभी फाग-चैती
कभी कजरी !
छलक-छलक जाती है
जिजीविषा की भरी गगरी !
जिजीविषा की गगरी यह
उनकी अक्षय थाती है
सूखा तो आता-जाता है
बाढ़ भी आती-जाती है !

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रचनाकार

Author

  • डॉ रवीन्द्र उपाध्याय

    प्राचार्य (से.नि.),हिन्दी विभाग,बी.आर.ए.बिहार विश्वविद्यालय,मुजफ्फरपुर copyright@डॉ रवीन्द्र उपाध्याय इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है| इन रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है|

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