अशेष अनुराग से
गुड़िये को सजाती तुम
बिसर जाती हो खाना-पीना
बुदबुदाती है माँ
झिड़कियाँ सुनाती है
बेपरवाह, तन्मय तुम
क्या कुछ गाती-गुनगुनाती हो
रचाती हो गुड़िया का व्याह
तुम नहीं जानती मेरी बिटिया
तब माँ,केवल माँ लगती हो तुम
जब कभी विनोद-मोद में
करता हूँ तेरे व्याह की बात
सहसा बिफर जाती हो
नन्हें हाथों से
मुक्के लगाती हो
बाँहों से बाँध कर गर्दन
मेरे वक्ष से चिपक जाती हो
गुड़िये का व्याह
खुद के संदर्भ में
खौफ क्यों बन जाता है ?
मेरे प्रति अविकल्पित स्नेहवश
या दूरदर्शी तुम
मेरी तनया
महसूसने लगती हो
दहेज-दंश !
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