जाने क्यों अकसर लगता है

जाने क्यों अकसर लगता है

अपनों से ही डर लगता है!

कठिन समय है, दग़ाबाज भी

बातों में दिलबर लगता है!

हासिल है जो सीप-शंख-सा

मिला न जो गौहर लगता है!

जितना कम सामान साथ हो

उतना सरल सफर लगता है !

घर तो बेटों-बहुओं का है

हर बूढ़ा बेघर लगता है !

अंग आचरण का बन जाए

ज्ञान तभी सुन्दर लगता है।

मन कबीर-सा हो जाए फिर

काशी-सा मगहर लगता है!

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रचनाकार

Author

  • डॉ रवीन्द्र उपाध्याय

    प्राचार्य (से.नि.),हिन्दी विभाग,बी.आर.ए.बिहार विश्वविद्यालय,मुजफ्फरपुर copyright@डॉ रवीन्द्र उपाध्याय इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है| इन रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है|

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