ज़िंदगी की किताब के पन्ने,
उड़ते हैं , फड़फड़ाते हैं ।
कभी किसी स्थित परिस्थित में,
फट जाते हैं , उखड़ जाते हैं ।
लेकिन किताब के हर पन्ने का वजूद है ,
इसलिए किताब को किताब बने रहने के लिए ,
हम उन फटे,उखड़े पन्नों को चिपकाते हैं ,
प्रयत्न कर किताब को किताब बनाते हैं ।
देखा है न, एक दो पन्नों के बगैर,
किताब की क़ीमत क्या रह जाती है !
जिंदगी की किताब भी ,
हर रिश्ते की महक से मुस्कुराती है ।
लेकिन जब पन्ने ज़िद पर हों,
खुद को बड़ा समझ ,
ख़ुद को ही संपूर्ण किताब समझते हों!
तो किताब शान्त हो जाती है ,
व्यवस्थित करने के लिए ,
कुछ पन्नों को स्वयं में दोहराती है ।
किताब जानती है , दोहराए गए पन्ने ,
उस किताब को किताब नहीं बना पाएंगे ।
अधूरे वाक्य , अधूरे जज़्बात
सब अर्थहीन हो, निर्थक हो जाएंगे ।
बस वह किताब,
दूर से एक किताब जैसी दिखेगी।
सभी अध्यायों से सम्पूर्ण दिखेगी ।
लेकिन पढ़ने वाला समझ जाएगा ,
उस किताब की पीड़ा को ।
जज़्बातों के संग,
खेले गए क्रीड़ा को ।