जब हवाओं में है आग की-सी लहर
देखिए, खिल रहे किस क़दर गुलमोहर !
आदमी के लिए ही बना हर शिखर ।
उस तरफ़ का किनारा न उसके लिए
जिसके भीतर भरा डूब जाने का डर ।
ज़िन्दगी बे-उसूलों की ऐसी लगे
जैसे बे-शाख़ ,बिन पत्तियों का शजर ।
चाँदनी में चिराग़ों को मत भूलिए
चार दिन चाँदनी फिर अँधेरी डगर !
पहले जैसी कहाँ गाँव की छाँव अब?
गाँव में घुस रहा रफ़्ता-रफ़्ता शहर !
बाख़ुशी आप बेशक वफ़ा कीजिए
दर्द होगा सिला ढूँढिएगा अगर ।
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