चार पैसा कमाने शहर जो गया

चार पैसा कमाने शहर जो गया

गांव मुझसे मेरा बे नजर हो गया

बीता बचपन जवानी गई

बारिश की बुंदे सुहानी गई

आई न लोट के वो घड़ी

प्यार मे मेरे थी जो परी

खो गया संसार जाके शहर

छुट गया मस्ती का वो पहर

सावन की बुंदे वो कागज का नाव

छुट गया मेरा प्यारा सा गांव

चार पैसे कमाने के प्यार मे

कसती पड़ी है मझधार मे

गांव के कुआ मे था अपना पन

पीपल के पेड ने मोहा था मन

गंगा की लहरे वो अमरूद का पेड

तोड़कर खाना वो मीठे बेड

खेतो मे उडता हुआ ये धुआ

प्यासे को प्यास बुझाता कुआ

दिया है बहुत कुछ मेरे गांव ने

बहुत प्यार दिया पीपल के छाव ने

सुर को छेडती गंगा की लहरे

रास्ता तकती माँ की नजरे

गांव मे थी इक सुन्दर परी

पागल था मै उस पर हर घड़ी

फसलो की तरह लहराता था आँचल

ऑखो को मयकश बनाता था काजल

उसको चाँद कहता था मै

खोया खोया सा रहता था मै

छुट गया मेरा प्यारा सा गांव

शहर के धुआ मे पाया ना छाव

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रचनाकार

Author

  • राजीव रंजन रौशन

    राजीव रंजन रौशन पटना बिहार Copyright@राजीव रंजन रौशन / इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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