तीरगी-तीरगी बढ़ रहे ये क़दम
चार पल की मधुर चाँदनी के लिए ।
दरमियाँ दो दिलों के बहुत फासला
छू रही है शिखर छल-कपट की कला
आदमी स्वार्थ में हो रहा बावला
जुस्तजू में चला जा रहा हूँ अथक
जी सकूँ चैन से उस ज़मीं के लिए ।
थी तमन्ना हँसूँ और रोया बहुत
प्राप्ति छलती रही और खोया बहुत
ज़िन्दगी की उदासी को ढोया बहुत
तार टूटे हुए जोड़ता चल रहा
सींच दे मन मदिर रागिनी के लिए ।
फैलता ही गया सिर्फ़ बाज़ार है
भावनाओं की जिसमें न दरकार है
आदमी एक अदद बस खरीदार है
है फिज़ाओं में डर ,शक भरी हर नज़र
मैं विकल हूँ अमन और यक़ीं के लिए ।
विघ्न बेशक बहुत,कम नहीं हौसले
राह में शूल हैं तो सुमन भी खिले
संग ही आँसुओं के सपन भी पले
कारवाँ साथ होगा नहीं आज ,कल
सब बढ़ेंगे नयी रौशनी के लिए।
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