चक्रव्यूह
चक्रव्यूह के हर द्वार पर
मैं अकेला ही खड़ा था,
महारथियों की
समवेत सेना के सम्मुख,
तलवारों की नोंक से
अपने को बचाता हुआ
अंधी सुरंगों के बीच
उजास की रेखाएं ढूंढ निकालता हुआ,
आसपास होकर भी बहुत दूर थे
अपने लोग,
किसी की दुआओं
किसी के आशीषों
किसी के गुर और मंत्रणाओं से
बहुत परे मुझे ही लेने थे
अपने निर्णय,
चुनने थे अपने हथियार
बनानी थी खुद ही रणनीति,
एक ही चूक से
जहां खत्म हो जाता है खेल,
गढ़ती और विसर्जित होती हैं प्रतिमाएं।
बदल जाते हैं भूगोल और इतिहास।
समय के हर मोड़ पर
अकेले ही लड़नी होती हैं
निर्णायक लड़ाई हमेशा।
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