खुला आकाश सारा

फिर मिले की न मिले ये खुला आकाश सारा

साँझ की पिघली शिला का रेशमी सा ये किनारा

हो न शायद अब कभी इस राह पर यह चिह्न मेरे

फिर मिले कि ना मिले इस नदी का नीर सारा

रात के आने से पहले रंग सारे ओढ़ लूँ

जो मिले थे सुर तुम्हारे गीत सा में जोड़ लूँं

फिर मैं पाऊँ कि ना पाऊं कल्प कुसुमों की ये धारा

फिर मिले कि ना मिले इस नदी का नीर सारा

सांझ का अनुरक्त पाखी रात की इस यवनिका में

खो गया जलबिंदु जैसा एक स्वप्निल मरीचिका में

फिर मैं पाऊंगी ना पाऊं उस क्षितिज की रंग धारा

साँझ की पिघली शिला का रेशमी सा ये किनारा

गंध बिखरी चेतना की स्वप्न के उस वृंत पर

है खुला अनुभूति का निस्सीम यह आकाश सारा

फिर मैं पाऊं कि ना पाऊं ये सृजन की मुक्त धारा

फिर मिलेगी ना मिले यह खुला आकाश सारा

गीत विखरे सप्तवर्णी पारकर सूनी इयत्ता

वो समय के गाल पर अनुबंध मेरा खिल गया

फिर मैं पाऊँ की ना पाऊं वह समय की रंगशाला

सांस की पिघली शिला का रेशमी सा वो किनारा

फैलता अनुगूंज सा फिर यह समीरण रेशमी

चाँद खिलता नीम पर दूर बजती बाँसुरी

फिर मैं पाऊँ कि ना पाऊं जल पथों का ये किनारा

फिर मिले कि ना मिले इस नदी का नीर सारा

साँवली सूनी हवाएं वो अपरिचित दूरदेशी

गुनगुनाती धूप की निर्लिप्त सांसो में सिमटती

फिर मैं पाऊँ कि न पाऊँ माधवी लय का सहारा

साँस की पिघली शिला का रेशमी सा वो किनारा

कर रहा हूं आज अर्पित मैं तुम्हें सर्वस्व अपना

आज दे दो बस मुझे संभाव्यता का एक सपना

अब न शायद लौट पाऊँ हो मिलन ना अब दोबारा

फिर मिले कि ना मिले यह खुला आकाश सारा

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रचनाकार

Author

  • डॉ अंजू सिंह परिहार

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