कोई मौसम हो,जाने क्यों
पतझर लगता है!
अपने घर में ही अनजाना-सा
कितना छोटा और अनिश्चित
कितना जीवन
ऊब, उदासी,उलझन
कितनी-कितनी अनबन !
मन तो हरदम शंकाओं का
दफ़्तर लगता है!
घायल है विश्वास
आस्था ठोकर खाये
हाथ मिलाते लोग
दिलों में दाँव दबाये
दहशतज़दा,प्रपंची-छलिया
मंज़र लगता है !
देते श्रम उपदेश यहाँ पर
बैठे ठाले
सपने बाँट रहे हैं
नींद उड़ाने वाले !
कैसा जादू-मन्तर –रहजन
रहबर लगता है !
चाँद हुआ नज़दीक
पड़ोसी दूर हो गए
ऊँचे इतने हुए कि
ताड़-खजूर हो गए
बुद्धि स्वामिनी हुई, हृदय बस
किंकर लगता है!
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