कुछ कहना है

कुछ कहना है

कुछ कहना है
बहुत अरसे से बेताब हैं दिल
कोई लफ्ज़ नहीं
जो हिम्मतवर बनकर
अपनी बात कह दे
कोई संकेत नहीं जो
नित्य मन अनिकेत में उठती बैठती
ख्वाबों की समीरों को
रुबाई बनाकर बिछा दे
थिरक रहें थे पैर उनके
थाप ले और चाप से
एक दिलनशी कहानी गढ़ ली थी
मद्दिम उजाला धीमा संगीत
खुद ब खुद फूट पड़ा हो जैसे
पैर सरगम कहने लगे
आँख नशीले अलफ़ाज़ उगलने लगी
हाथ रह रहकर कथ्य निभाने लगे
चलते चलते मुझे कोई मिल गया था
शहद बहने लगा कदमो के तले
होंठ थिर थे बस आँखे अर्थ बता रही थी
और पैर कविता पढ़ रहे थे
नृत्य मन का उदगार हो गया था
कशिश लम्हों में ढल रही थी
घर का अपना पहचाना सा कौना
महामंच बन गया था
नीरव एकांत में तालियाँ गडगडा रही थी
पहुँच रहा था नृत्य का सत्कार
कल्पना के महाकेशव के पास
और पूछ रहा था लगातार मेरी वंदना मिली ?
प्रत्युत था अद्भुत विलक्षण अपूर्व हैं
मन के एकांत गीतों को पैरों से गाना
और गीतों को पावन ऋचा सा बना देना

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रचनाकार

Author

  • त्रिभुवनेश भारद्वाज "शिवांश"

    त्रिभुवनेश भारद्वाज रतलाम मप्र के मूल निवासी आध्यात्मिक और साहित्यिक विषयों में निरन्तर लेखन।स्तरीय काव्य में अभिरुचि।जिंदगी इधर है शीर्षक से अब तक 5000 कॉलम डिजिटल प्लेट फॉर्म के लिए लिखे।

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