बुलबुले-सा बनता-मिटता जाएगा शिकवा-गिला
टूटने पाये न अपने स्नेह का यह सिलसिला ।
व्यर्थ की बातों में बहकेंगे-बँटेंगे हम अगर
ध्वस्त होगा किस तरह फिर झूठ का दुर्गम क़िला ?
इस चमन में सरक आये हैं कहीं से साँप कुछ
चीख़ता है रात में कोई न कोई घोंसला ।
कब से ठहरा है यहाँ मनहूस मौसम इस क़दर
फसल के बदले लगे हैं लोग बोने फासला ।
एक डग संकल्प का मंज़िल को है ललकारता
अनिश्चय के घाट पर मत रोकिए अब काफिला ।
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