मैं एक मुट्ठी धूप लाया हूँ,
चलो इस सर्द लम्हों में, थोड़ी तुम रख लो l
मगर, तुम संभाल नहीं पाओगे,
इसकी तपिश से झुलस जाओगे l
क्योंकि ये धूप,
किसी टूटी हुई झोपड़ी के नीचे ,
अध नंगे इन्सान के डूबते सूरज की है l
वही सूरज जिसके होने से,
वह पिघलकर,
चारों खानें चित हो जाता है l
वही सूरज जिसके न होने से ,
वह जम जाता है ll
बहुत मुश्किल से,
सूरज के होने न होने के बीच से,
कांपती, पसीने से लथपथ,
भूख प्यास की अतड़ियों से निकली चीख से,
उस फूहड़,गवार, शरीर और समाज के बोझ से ,
बचते बचाते,
नज़रे चुराते,
लेकर आया हूँ ,
मैं एक मुट्ठी धूप लाया हूँ ll
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