बाहर है सब भरा – भरा / अन्तर्घट रीता का रीता !
चल रहे- नहीं मंज़िल कोई
बस भँवर नहीं साहिल कोई
कितना निष्फल,कितना दारुण
जो समय अभी तक बीता !
मुखड़े की ज़गह मुखौटा है
कद बड़ा, आदमी छोटा है
सारे रिश्ते ज्यों लाल मिर्च
लाली ऊपर, भीतर तीता !
सब हाँक रहे अपनी - अपनी
हँस रही सूप को है चलनी
रावण भी जपता ‘ राम- राम ‘
औ’ शूर्पनखा ‘ सीता – सीता ‘!
हक़ माँगो तो अज्ञातवास
सच कहा बँधोगे नाग-फाँस
है चकित पार्थ , केशव भौंचक
दुर्योधन बाँच रहा गीता !
अन्तर्घट रीता का रीता !
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