अंधेरा अंदर नहीं बाहर है

मनुष्य अभीप्साओं
का पिंड ही तो है
जीवनभर चला करता है
तमन्नाओं का सिलसिला ।
एक के पास दूसरी इच्छा।
अंतहीन सफर।
तुष्टि अनवरत खोज ।
एक बसेरा निकेत बन जाए
तो रुक जाएं
एक निवाला
जिंदगीभर की भूख मिटाएं
तो पा लें ।
एक मुस्कान अधरों को
सर्वदा की हरीतिमा से भर जाए
तो साथ हो लें ।
एक कदम पूरी मंजिल ही
बनता हो तो रुकने का यत्न करें ।
एक ठोकर आखरी
सबक बनता हो तो खा लें ।
एक नैया और एक खिवैया
भव पार करे
तो क्यों बदले नौका ।
अनुभव खंडहर की
चमगादड़ है ।
अन्धकार अन्दर नहीं
बाहर है लेकिन
भय निकलने नहीं देता
और दौड़ती रहती है
दृष्टियाँ अनवरत
चिर अनंत और विराम ।
मुठ्ठियों में कुछ भी नहीं
वो क्या था जो राह भर
दबा के रखा था
हाहाहा हा हाहा—–

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रचनाकार

Author

  • त्रिभुवनेश भारद्वाज "शिवांश"

    त्रिभुवनेश भारद्वाज रतलाम मप्र के मूल निवासी आध्यात्मिक और साहित्यिक विषयों में निरन्तर लेखन।स्तरीय काव्य में अभिरुचि।जिंदगी इधर है शीर्षक से अब तक 5000 कॉलम डिजिटल प्लेट फॉर्म के लिए लिखे।

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