चित्र संजोए बचपन के,
यौवन का कुछ उद्गार लिए,
घुम रहा डगर शहर में-
यादों का एक संसार लिए।
बिजली -बत्ती रह-रह कर,
बीच सड़क पर छलती है!
वह दूर सघन अंधेरों में दीपक की बाती जलती है।
छुट गया घर-गांव डगर,
आता रह-रह कर याद सफ़र।
घर जाने वाली पगडंडी क्या!
अब भी टेढ़ी-मेढ़ी चलती है?
वह दूर सघन अंधेरों में दीपक की बाती जलती है।
वें नजरें देखा करती थी ,
कब के शापित चकोरिन सी;
यें नयन देखा करती क्यू-
जुगनू की आंख मिचौली सी,
तम से घिरे गगन बीच-
दामिनी रेख थिरकती है।
वह दूर सघन अंधेरों में दीपक की बाती जलती है।
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