बिक गये जो वस्तुओं की भाँति
होकर चरण-चाकर रह गये
जन के मन में,यश-गगन में
आँधियों का वेग
अपने वक्ष पर जो सह गये !
रौशनी वश में सदा उसके रही है
जो तपा करता है प्रतिपल
है यहाँ प्रतिमान – यह दिनमान।
हो भले चिकना बहुत/ तारों सजा , पर
पराश्रित है चन्द्रमा
रौशनी की याचना में
सूर्य के सम्मुख/विनत है सर्वदा ।
चोट केवल चोट/सहते जा रहे
जान लो, हम चिनक जायेंगे नहीं
शीशा नहीं/हम गर्म लोहा हैं
जिसे चोटें सही आकार देती हैं
तुम्हारी दृष्टि में
जिस पर अहं की अन्धता ही चढ़ रही है
निरन्तर म्रियमाण हैं हम
फूल-फल तो तुम रहे हो !
दशानन-दृष्टि में भी- रीछ,नर, वानर
महज़ आहार थे
हुआ विपरीत ही संग्राम में !
तुम जी रहे जो ज़िन्दगी
वह मात्र बलि है/मृत्यु-वेदी के लिए
हम जी रहे जो ज़िन्दगी
उदरस्थ उसको मृत्यु भी/कर नहीं सकती।
हमारी ज़िन्दगी दावाग्नि है
महावन में मृत्यु के
जिसकी न खोती अस्मिता
हमारी ज़िन्दगी बड़वाग्नि है
मृत्यु-सागर के हृदय में/कौंधती है!