जीवन की ओर
धारा चल जीवन की ओर जीवन की किसी मरुभूमि को कर सिंचित,चल जग की ओर धरा के उर्वर कितने कोने, मरू,नागफनी उगे परे हुए तू
धारा चल जीवन की ओर जीवन की किसी मरुभूमि को कर सिंचित,चल जग की ओर धरा के उर्वर कितने कोने, मरू,नागफनी उगे परे हुए तू
पाप-अनल से घिरा हुआ जग, मनुज दुखी रोता है दया करो हे! जग-दुःख-त्राता, दास विनती करता है कृपासिंधु तुम! बूंद कृपा की, जीवन पर बरसा
भूल गया अब याद नहीं कुछ मानव को जीवन में अर्थ-अर्थ की दौड़ लगी है जीवन के प्रांगण में भूल रहा मानव मानवता अर्थ-स्वार्थ-चिंतन में
मैंने देखा… हिमकर की उस प्रशांत रात्रि में मन की धवल, तन कोमल-श्यामल चहरे पर मुस्कान मनोहर गाती एक गीत जाती थी मेरे भ्रमित-पथिक मन
सुख भी जीवन, दुःख भी जीवन सुख में जो हँसी, दुःख में क्रंदन सुख का श्रृंगार है – हास-विलास सुख की शोभा- कामिनी-कंचन दुःख की
जाग मनुज अब हुआ सबेरा विहग-वृन्द ने तरु-वृंत पर निकल नीड़ से डाला डेरा नव-प्रभात की प्रथम किरण में खग-कुल ने मधु गान है छेड़ा