डॉ अंजू सिंह परिहार
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डॉ अंजू सिंह परिहार

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खेल तमाशा सा जीवन है

खेल तमाशा सा जीवन है मौसम इक सैलानी है पैकर है अपनी ख़्वाबों का जीवन अजब कहानी है मुझको व परवाह नहीं है किस्मत की

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यादों की बारिश में धुलकर

यादों की बारिश में धुलकर सुबह हुई है रेशम सी आँखों में एहसास घुले हैं याद घुली है शबनम सी यादों की इस नर्म धूप

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तुम्हारी याद

तुम्हारी याद की आहट कोई किस्सा बताती है ये घुलकर साँस में मेरी नई दुनिया सजाती है तुम्हारी याद ही शायद है वो दीवार, सूनी

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ना कह कर पछताया है मन

भावों की इस बेला में, तर्क कहांँ चल पाएगा ना कह कर पछताया है मन कह कर भी पछताएगा शब्दों की इस भीड़ भाड़ में

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जो खो गई हैं चाहतें

जो खो गई हैं चाहतें उनको तलाश दो मोहब्बत की राह में हूँ कोई खराश दो मासूमियत को ही मेरी संगशार कर दिया पत्थर सा

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तुम्हारी बेख़ुदी के हम कभी तो राज़दाँ होंगे

तुम्हारी बेख़ुदी के हम कभी तो राज़दाँ होंगे कभी कू-ए-वफा में फिर मिले तो हमज़ुबां होंगे अना की बेख़ुदी होगी अभी कुछ फ़ासले होंगे जहां

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हर मंज़र आज़ार हुआ

दरवाज़ा दीवार हुआ बिन दस्तक बेज़ार हुआ रिश्तों के सब झूठ खुल गए जब मोहसिन तलवार हुआ लंबी चुप और दिल भी खाली, निस्बत की

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बस चलना है

बस चलना है खा़मोश अँधेरी रातों में बस चलना है इक दिन तो रोशन होगी ये तब तक ऐसे ही जलना है बस चलना है

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यह प्रेम अगर फिर अपना होता

यह प्रेम अगर फिर अपना होता मैंने भाग्य सँवारा होता तुम मिलते फिर फिर से मुझको क्यो प्यार मेरा बञ्जारा होता कुछ भी मेरे पास

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