मकर संक्रांति
कुहरा घना छाया हुआ है ,पर्व यह आया हुआ हैठंडी हवा के झोंकों से, मन ये सकुचाया हुआ हैलग गई है भीड तट पर, जनसैलाब
कुहरा घना छाया हुआ है ,पर्व यह आया हुआ हैठंडी हवा के झोंकों से, मन ये सकुचाया हुआ हैलग गई है भीड तट पर, जनसैलाब
आँखों का होता इशारा गर कभी मेरी तरफचांद तारों का बदलता रूख सदा मेरी तरफलड़खड़ा गिरता कभी ना जिंदगी के मोड़ परतेरी बाहों का सहारा
जब गली में मेरे आज आ ही गए दिल से दिल आके अबतो मिला लीजिए फूल ना मिल सका कोई गम ना करो हार बाहों
घर परिवार समाज एवं अपने विभाग से अपमानित व मूर्ख पागल हरिश्चंद्र का चेला जैसी उपाधि प्राप्त कर चुके इंस्पेक्टर साहब के चेहरे पर आज
कल सुबह जल्दी उठने के चक्कर में मैं आज रात सो नहीं पा रहा था | जितना जल्दी सोने का प्रयास करता आंखों से नींद
जबसे हुए हैं शिक्षित, ताजा विचार आयापरिपाटिया भी हमको, दिखने लगी छलावामाया का जाल ऐसा, कोई नहीं किसी काहर आदमी अकेला, हर चेहरा अजनबी साबाहर
कभी देखा है?दबे कुचले मैंले लोगों कोउनके होठों के हिलते कंपन कोउनके मन की लहर कोआंखों के सूखे आंसू कोहृदय की करुण पुकार कोहृदय में
बीतते हुए साल ने मुझसे रोते हुए ये कहाथक गया हूं ,टूट गया हूं, रूठ गया हूं अपनों सेमुझे अब जाने दोपाखंडों से भरा हुआ
क्या कभी आपने उसकी भावना को समझा जब आपके हाथ बढ़ते हैं डाली की तरफ कलियां चुनने के लिए डाली कंपन करती है डरती है
अगर मुझ पर कभी तेरा इशारा हो गया होता डूबती धार में मुझको किनारा मिल गया होता कभी भी लड़खड़ा करके न गिरता फिर तो