अँधेरे से आलोक की इस यात्रा में
पार करना है एकाकी
नदी,वन,पर्वत
किसी राजर्षि की सनक पर सवार हो
नहीं लेना मुझे स्वर्ग
याद है त्रिशंकु का अधर में लटकना !
नहीं चाहिए निदेशन
माटी के द्रोण का
ज्ञात है अन्धी आस्था का अंजाम
अपना अंगूठा साबुत रखना है मुझे
चाहता नहीं हूँ छूना पतंगवत्
नीलिमा नभ की
किसी के हाथों क्यों सौंपू अपनी डोर?
बैसाखियों की क्या ज़रूरत ?
अपने पैरों पर प्रत्यय है
जानता हूँ यह सफर
नहीं है सरल
मोड़-दर-मोड़ मुश्क़िलें हैं
पथरीले हैं पड़ाव
आँधियाँ हैं ,ओले हैं
स्वेद है,फफोले हैं
फिर भी इस यात्रा में
बढ़ना है अविराम ,अप्रतिहत
किसी से नहीं है कोई अपेक्षा
विदित है मुझे
मध्याह्न की चिलकती धूप में
स्वयं का साया भी
छुप जाता है
तलवों तले!
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