होली

बताया जाता है कि पुराणों के अनुसार होली त्योहार मनाए जाने की शुरुआत प्रहलाद-होलिका-हिरण्यकश्यप की प्राचीन कहानी से हुई है जिसमें होलिका जल जाती है और प्रहलाद बच निकलता है। सर्वाधिक प्रचलित कहानी यही है और होली मनाए जाने की प्राचीन परंपरा के पीछे यही माइथोलॉजी सर्वाधिक मान्यताप्राप्त है। इसके अलावा शिव-पार्वती की कहानी एवं श्रीकृष्ण-पूतना की कहानी भी होली त्योहार मनाए जाने के प्रारंभन से जोड़ी जाती है।
जीवन की शुरुआत से… बचपन में, बालपन से होली मनाने का मतलब रंग-गुलाल उड़ेलना, पिचकारी भर-भर कर हमउम्र, छोटे-बड़े, बुढ़ों सभी को रंगों से सराबोर करना रहा है। साथ ही होली का मतलब एक दिन के लिए स्वतंत्र, स्वछंद, उन्मुक्त उल्लासपूर्ण धमाचौकड़ी मचाना, मिठाई, ठंडाई, शर्बत का आनंद लेना, दोस्तों के साथ, दोस्तों के घर मिल भेंट करना, रंग गुलाल लगाना, मिष्ठान पकवान खाना और वर्ष भर बाद फिर से होली मनाए जाने का सुअवसर प्राप्त होने पर परमात्मा का धन्यवाद करना, प्राप्त जीवन की मस्ती और उल्लास का आनंद उठाना रहा है।
इतने वर्षों के दौरान, इस सफर में कभी भी इस चक्कर में नहीं पड़े कि होलिका कौन थी या प्रहलाद कौन था या हम होली इसलिए मनाएं या इसलिए ना मनाएं कि इसके मनाए जाने के पीछे की कहानी क्या है। किसी कहानी को याद करके, उसके पात्रों का स्मरण कर उस उद्देश्य से कभी होली मनाएं हों, इतने वर्षों में ऐसा कभी जान नहीं पड़ता।
ये भी कभी सोचने की जहमत नहीं हुई कि सामने जो लकड़ियों का ढेर जला रहें हैं उसमें होलिका है या नहीं। हमारे लिए वह केवल और केवल लकड़ियों एवं कुड़ों-कंडो का ढेर रहा है। इसके दूसरे दिन मस्ती से रंग-गुलाल लगाने के दौरान भी कभी नहीं सोचते थे कि पुराणों या किसी ग्रंथ में क्या कहा गया है या हमें होली कैसे मनानी है। ये सब तो तब पता चला जब प्राथमिक कक्षाओं में ‘होली’ विषय पर निबंध लिखना होता था और उस दौरान पता चलता था कि हिरण्यकश्यप और होलिका की इस तरह कहानी है जिसे होली त्योहार के रूप में मनाते हैं।
अब ये पुराणों की कोई कहानी है या ऐसा सच में कुछ हुआ है या इससे इतर होली मनाएं जाने की परम्परा रही है या इन सब से हटकर कोई अन्य बात है ये सब अलग मुद्दा है लेकिन बचपन से हमारे होली मनाने का उद्देश्य रंग-गुलाल, नाच-गाना, हंसी-ठिठोली, मौज-मस्ती रहा है बगैर इस प्रकार की चिंता किए कि हमारे पुराणों में या परम्पराओं में क्या कहा गया है।
फाल्गुन मास के लगते ही गांवों के वातावरण में एक अलग बदलाव आने लगता है। महुआ और आम के बौर की खुशबू के साथ प्रकृति का रुप निखरकर सामने आता है और प्रकृति के साथ-साथ जन-जन का मन झूमने को आतुर हो उठता है।
भारतीय संस्कृति की गौरवशाली, उल्लासमय, जीवंत, रंगीन परम्परा से लोग सराबोर होने का इंतजार करते हैं।रंग-गुलाल की बहार छाने लगती है। रंगों के बौछार का दृश्य सामने आता है। लोग तमाम चिंताओं से मुक्त, बेपरवाह, स्वतंत्र, स्वच्छंद महसूस करने लगते हैं। बच्चों का उत्साह चरम पर होता है। रंग, गुलाल, पिचकारी, मुखौटा लगाकर होली की सुखमय उल्लासपूर्ण परम्पराओं के लोग गवाह बनते हैं।
ढोल-नगाड़ों की आवाजें और मादक मृदंगों की थाप सुनाई देती हैं। फाल्गुन मास की शुरुआत में ही होली के आगमन की सूचना इन मृदंगों से मिल जाती हैं। परसा, पलाश के सुर्ख लाल रंग के फूल, अमलतास के पीले रंग और फाग के गीत होली आगमन की सूचना देते हैं। गली-गली में होली आगमन के पंद्रह दिवस पूर्व से ही फाग गाये जाते हैं भले ही वे सभी पारंपरिक गीत अब अलसाने लगें हैं लेकिन मन में मृदंग की ध्वनि वैसे ही गूंजित होतीं हैं। दुर्भाग्य से कोरोना काल के चलते विगत दो-तीन वर्ष दूरदराज गांवों में भी कहीं टीन-टप्पर बजाए जाने की आवाजें सुनाई नहीं दी थी लेकिन बदली परिस्थितियों में लोगों का उत्साह फिर लौट आया है। वह सुबह फिर लौट आया है जिसे गहन अन्धकार के बाद लौटना ही था।
बदलते जमाने के साथ हर तीज-त्योहार का स्वरूप बदलने लगा है। आज के आधुनिक दौर में नवीन तकनीकों का बोलबाला है। अब लोग प्रत्यक्ष ना मिल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से शुभकामना संदेशों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। सोशल मीडिया, वाट्सएप, फेसबुक पर होली के गीत, शेरों-शायरी, बधाई और शुभकामना संदेश सेयर किए जा रहे हैं, बावजूद लोग अपने-अपने घरों, मोहल्लों, कालोनियों में रहकर होली गीतों पर नृत्य करते हुए इसकी मादक रंगीनियां बरकरार रखे हुए हैं। अपनों के बीच उल्लास की खूब सारी तस्वीरें लीं जा रहीं हैं। ठेठरी, खुमरी, गुझिया, ठंडाई और पारंपरिक मिठाइयों से रसोई अब भी गुलजार है। आज की आधुनिकता में भी नैसर्गिक खुशियां बरकरार हैं।
भले ही त्योहार मनाए जाने का दायरा सिमटते जा रहा है बावजूद लोगों में जीवन का उत्साह वही है जो सदियों से रहा है। एक होली त्योहार ही है जो जीवन की रंगीनियों का संदेश देती है, इसकी बदौलत जीवन में रंगीनियां बरकरार हैं।

Facebook
WhatsApp
Twitter
LinkedIn
Pinterest

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

रचनाकार

Author

  • राकेश नारायण बंजारे

    पिता- श्री नारायण प्रसाद, माता- श्रीमती भूरी बाई,जन्म तिथि -- 18/06/1978, शिक्षा -- एमएससी, एमए, सीआईजी (इग्नू),अभिरुचि - साहित्य लेखन एवं समाज सेवा। समसामयिक विषयों पर सतत् लेखन व विभिन्न समाचार पत्रों में नियमित प्रकाशन। समाज सेवा के लिए समर्पित जीवन। रक्तदान, नेत्रदान, देहदान के लिए संकल्पित।पुरस्कार, सम्मान -- भारतीय दलित साहित्य अकादमी धमतरी छत्तीसगढ़ द्वारा 'डॉ. अंबेडकर समता अवार्ड 2015', छत्तीसगढ़ स्वाभिमान संस्थान रायपुर, छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण, योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा प्रकोष्ठ छत्तीसगढ़ एवं सोच विचार मिडिया रायपुर की ओर से 'पर्यावरण मित्र सम्मान 2021', वक्ता मंच रायपुर द्वारा 'वागीश्वरी सम्मान 2021' से सम्मानित। विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं एवं मंचों से सम्मानित।संप्रति -- व्याख्याता (शासकीय हाईस्कूल चंद्रशेखरपुर) संरक्षक, प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज संगठन खरसिया जिला रायगढ़ छग. प्रदेश प्रवक्ता, शहीद भगत सिंह ब्रिगेड, छत्तीसगढ़ उपाध्यक्ष, काव्य कलश कला एवं साहित्य मंच खरसिया.पता -- फ्रेंड्स कालोनी तेलीकोट, तहसील खरसिया, जिला रायगढ़ छग. Copyright@राकेश नारायण बंजारे/इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

Total View
error: Content is protected !!