देखो उस
अविश्रांत पथिक को
उज्ज्वल नभ के स्वर्ण-पुरुष को
खुद जल,जग ज्योतिर्मय
चलता पथ पर धीरे-धीरे
नहीं किसी का है गुलाम
निष्काम जगत की सेवा करता
जब थक कर पूरब सो जाता
तब भी जग,पश्चिम को जाता
खुद जल, कर, औरों की सेवा
‘दिनकर’ हमको नित्य सिखाता ||
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