सावन तुम फिर कब आओगे
शुष्क हृदय में कब छाओगे
फूल खिलेंगे दिल में कब तक
गुलशन बन कब महाकाओगे
सावन तुम फिर कब आओगे
दिल की बगिया सूख रही है
खुद ही खुद से रूठ रही है
स्वयं पुष्प अब खार बने हैं
जीवन के जंजाल बने हैं
मिट्टी की ही परत जमी है
धूल भी तपती रेत बनी है
दिल में बिरह की अग्नि जली है
सूरज जैसी तपन भरी है
बरसके भावो के जल को कब
दिल की तपन मिटाओगे
सावन तुम फिर कब आओगे
दिल ने ऐसी दस्तक दी है
नींद हमारी टूट गई है
जग-जग कर ही रहा देखता
अपनी अपनों से रूठ गई है
वो सच्चा था या झूठा था
आंखों ने जिसको देखा था
धड़कन बन करके मेरी कब
दिल को तुम समझाओगे
सावन तुम फिर कब आओगे
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