समाजवाद, राष्ट्र और चन्द्रशेखर

समाजवाद, राष्ट्र और चन्द्रशेखर

समाजवाद, राष्ट्र और चन्द्रशेखर
– डाॅ. उमेश कुमार शर्मा
समाजवादी विचारधारा ने जितनी अधिक हलचल वर्तमान शताब्दी में उत्पन्न की है, उतनी अन्य किसी भी विचारधारा ने नहीं। आज ‘समाजवाद’ अन्य किसी भी विचारधारा की अपेक्षा अधिक व्यापक है। किसी -न – किसी रूप में यह संसार के करोड़ों मानवों का धर्म-सा बन गया है तथा उनके विचारों एव॔ कार्यों की रूपरेखा निर्धारित करता है। ‘समाजवाद’ तथा ‘समाजवादी’ शब्दों को विविध अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है, फिर भी शब्द और अर्थ का घनिष्ठ सम्बन्ध है। ‘समाजवाद’ शब्द भी इन सिद्धान्त का अपवाद नहीं है। ‘समाजवाद’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘सोशलिज्म’ का हिन्दी रूपान्तर है। ‘सोशलिज्म’ शब्द लैटिन भाषा के ‘सोसियस’ (Socius) शब्द से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है- साथी, सहायक अथवा भागाधिकारी। यह किसी ऐसे व्यक्ति को सूचित करता है जो समान कोटि अथवा व्यवस्था का हो। अतएव, समाजवाद का अर्थ है – भ्रातृत्व अथवा मित्रता, जिसमें सब मनुष्य समानता के भाव के साथ मिल-जुलकर काम करेंगे। राज्य के शासन के सम्बन्ध में यह प्रकट करता है कि प्रत्येक कार्य निष्पक्ष रूप से साधारण जनता की सेवा के लिए किया जायेगा।
सम्भवतः समाजवाद के अतिरिक्त और किसी आन्दोलन पर न इतना अधिक विवाद हुआ है और न परिभाषा के विषय में इतनी कठिनाइयाँ ही उपस्थित हुई हैं। एक दृष्टि से समाजवाद एक परंपरा विरोधी नीति है, जिसके झण्डे के नीचे वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की समस्त विरोधी शक्तियाँ संगठित हो गयी हैं, जो पूँजीवाद के भिन्न-भिन्न पहलुओं, दोषों तथा दुर्बलताओं को दूर करने की चेष्टा करती हैं। फलतः समाजवाद जिन आन्दोलनों की ओर संकेत करता है, वे प्रारम्भिक बिन्दु और उद्देश्य में, साधनों और तथ्यों में इतने भिन्न हैं कि एक संक्षिप्त परिभाषा के अन्तर्गत उन सबका सन्तोषजनक वर्णन हो जाना सरल काम नहीं है। इसके अतिरिक्त समाजवाद एक जीवित आन्दोलन एवं सिद्धान्त दोनों है जो भिन्न ऐतिहासिक एवं स्थानीय स्थितियों में भिन्न रूप ग्रहण करता रहा है- “Socialism is both a Movement and theory and takes different forms under different historical and local conditions.”(1)
रैम्जे म्योर ने उचित ही लिखा है कि, “समाजवाद गिरिगिट के समान रंग बदलने वाला विश्वास है। यह वातावरण के अनुसार रंग बदलता है। सड़क के कोने तथा क्लब के कमरे के लिए यह वर्ग युद्ध का लोहित वस्त्र पहन लेता है। मानसिक पुरुषों के लिए इसका लाल रंग भूरे में परिवर्तित हो जाता है। भावनात्मक पुरुषों के लिए वह कोमल गुलाबी रंग का हो जाता है तथा क्लर्कों के समाज में यह कुमारियों का श्वेत वर्ण ग्रहण कर लेता है, जिसको महत्त्वाकांक्षा की मन्द मुस्कान का अभी अनुभव हुआ हो।”(2) श्री डान ग्रिफिथ्स ने 1924 ई. में एक पुस्तक ‘समाजवाद क्या है?’ सम्पादित किया, जिसमें उन्होंने समाजवाद की 263 परिभाषाएँ दी हैं। सन् 1892 ई. में पेरिस के लि फिगारों ने समाजवाद की 600 परिभाषाएँ प्रकाशित कीं। समाजवाद का मूल, विचार की अपेक्षा जीवन में तथा अध्ययन की अपेक्षा कारखानों, दुकानों तथा गन्दी गलियों में है। समाजवाद समाज के अस्तित्व एवं संगठन से सम्बन्धित बहुत से सिद्धान्तों का सम्मिश्रण है। समय- समय पर इसे धर्म तथा दर्शन की उपाधियाँ भी दी जाती रही हैं। 19वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में समाजवाद एक संगठित राजनीतिक शक्ति हो गया। इसकी आयोजनाएँ राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय हो गयीं और इसके प्रतिनिधि, दल तथा प्रेस स्थापित हो गये। अतएव समाजवाद पर इनमें से किसी एक अथवा समस्त दृष्टिकोणों से विचार किया जा सकता है और उसी के अनुसार परिभाषा बनाने के लिए प्रयास किया जा सकता है।
बरट्रेण्ड रसेल का कथन है कि, “समाजवाद का अर्थ -भूमि तथा पूँजी पर सार्वजनिक अधिकार करना है, साथ- ही -साथ लोकतान्त्रिक शासन भी स्थापित करना है। इसके अनुसार उत्पत्ति, प्रयोग के लिए है, लाभ के लिए नहीं, और उत्पत्ति का वितरण या तो सबको समान रूप से अथवा केवल इतना विषम हो जो कि जनता के लिए अहितकर न हो। यह अनुपार्जित धन तथा मजदूरों की जीविका के साधनों पर व्यक्तिगत अधिकार के निराकरण का समर्थक है। पूर्णरूप से सफल होने के लिए इसका अन्तरराष्ट्रीय होना आवश्यक है।”(3)
श्री डी. एच. कोल लिखते हैं कि, “समाजवाद में सिद्धान्त की अपेक्षा विश्वास की भावना अधिक है। यह एक ऐसे समाज को स्थापित करने की इच्छा तथा योजना है, जिसका आधार सहयोग तथा भ्रातृभाव हो, जो संगठित मजदूरों के आन्दोलन द्वारा प्रतिफलित हो सके और यह समझे कि सामाजिक अधिकार तथा सामाजिक कर्तव्य समान हैं तथा जो उन वर्गीय सेवा-सम्बन्धी सभी प्रोत्साहन और प्रेरणा को स्वतन्त्र कर सके, जिनको पूँजीवाद अस्वीकार करता है। संक्षेप में यह मजदूर वर्ग का तत्त्व ज्ञान है जो आर्थिक अनुभव के द्वारा सीखा गया है और अपने को समय की परिस्थितियों के अनुसार एक रीति अथवा कार्य- योजना में परिवर्तित कर लेता है। इसके द्वारा शासन प्राबल्य का विनाश होता है और वर्गीय आधिपत्य के मिट जाने से मनुष्य स्वतन्त्र हो जाते हैं।”(4)
जार्ज बर्नार्ड शॉ के अनुसार- व्यक्तिगत सम्पत्ति व्यवस्था की पूर्ण समाप्ति एवं सार्वजनिक सम्पत्ति का सम्पूर्ण जनता में समान एवं भेदरहित विभाजन ही समाजवाद है। उन्हीं के शब्दों में, “Socialism is “the complete discarding of the institution of private property and the division of the resultant public income equally and indiscriminately among the entire population.”(5) परन्तु यह परिभाषा अपूर्ण है, क्योंकि सेण्ट साइमन एवं फोरियर के समाजवादी कार्यक्रम पर लागू नहीं होती, साथ-ही-साथ वर्तमान समाजवादी व्यवस्था के लिए भी अनुपयुक्त है।
समाजवाद की प्रत्येक वह परिभाषा असफल है जो समाजवादी आन्दोलन के मुख्य उद्देश्य को दृष्टि से ओझल कर उसके केवल बाह्य लक्षणों पर अपना ध्यान केन्द्रित करती है। आस्कर जास्जी ने उचित ही कहा है कि, “एव्री definition must fail which focuses attention upon external features only and overlooks the central motif of all socialist Movements.”(6)
भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। यहाँ ‘समाजवाद’ के विकास की अत्यधिक संभावनाएँ हैं। यही कारण है कि यहाँ अनेक समाजवादी चिंतक हुए, यथा – महात्मा गाँधी, अंबेडकर, डाॅ. लोहिया, जय प्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव और चन्द्रशेखर आदि। इन समाजवादी चिंतकों में चन्द्रशेखर का नाम अग्रगण्य है।

भारत के संदर्भ में ‘राष्ट्र’ की अवधारणा :
भारत एक प्राचीन राष्ट्र है, जिसका अस्तित्व अनादिकाल से रहा है। अनेक उतार-चढ़ावों के बावजूद इसका स्वरूप निरंतर जीवंत रहा है। भारत में अनेक प्रकार की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक विविधताएँ होने के बावजूद यहाँ भावगत एकता है। भारत की राष्ट्रीयता के केन्द्र में सामासिकता अंतर्निहित है। यही करण है कि विदेशी शक्तियों ने अपने अमानवीयापूर्वक भारत की राष्ट्रीय चेतना को गहरा आपात पहुँचाने का निरंतर प्रयास किया, लेकिन वह इसके मूल तक न पहुँच सके। भारत में आर्य आए, द्रविड़ आए,शक आए,हूण आए, मंगोल आए, ईरानी आए, अफगानी आए, पुर्तगाली आए, मुसलमान आए, अंग्रेज आए,पर भारत को मिटा न पाए। वे सभी भारतवर्ष के विशालकाय समुद्र में खो गये। उनके आगमन से हमारी संस्कृति समृद्ध ही हुई। कारण रहा कि समय-समय पर अनेक महापुरुषों एवं जन- आदोलनों द्वारा भारत के राष्ट्र- भाव कर जागरण होता रहा, जिसके परिणामस्वरूप भारत की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता अक्षुण्ण बनी रही। पश्चिमी विचारों के अनुसार भारत कभी भी एक राष्ट्र नहीं रहा, बल्कि अनेक जातियों का सीधा-सीधा संबंध भारत में अनेक नस्लों, जातियों, धर्मों को मानने वालो से है। पश्चिमी विद्वानों के अनुसार-”भारत प्रशासनिक दृष्टि से कभी एक राष्ट्र नहीं रहा।” (7) उनके विचारों में राष्ट्र की अवधारणा ही पश्चिम की देन है। ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स मिल ने अपने ग्रंथ ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ में लिखा कि ,”भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक महाद्वीप है।”(8) एक अन्य इतिहासकार जाॅन माल्कम ने ‘पॉलिटिक्स हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में, ”सिख और मराठों तक को अलग नेशन बताया।”(9) पाश्चात्य विचारकों ही नहीं, बल्कि विदेशी चश्मे से भारत को देखने वाले रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों का भी यह मानना है कि ”भारत के राष्ट्र के रूप में संगठित होने और राष्ट्रीयता के उदय और विकास में केवल अंग्रेजी शासन का योगदान रहा है। अंग्रेजी साम्राज्य के अभाव में भारतीय कभी भी भारत को राष्ट्र का गौरव नहीं दिलवा सकते थे।”(10)
किंतु, यह एक भ्रांत धारणा है, जिसका आधार विदेशी मानते हैं, जबकि भारत में हजारों साल पहले, जब ब्रिटिश शासन की कल्पना भी नहीं रही होगी, तब हमारे मनीषियों ने ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहितः’ के रूप में ‘राष्ट्र’ की अभिव्यक्ति की। इतिहास साक्षी है कि ‘चाणक्य की प्रेरणा से चन्द्रगुप्त ने आर्यावर्त का एकीकरण किया था। उस विषम परिस्थिति में चन्द्रगुप्त ने अखंड भारत की परिकल्पना को साकार क, दिखाया, जब एक ओर भारत अनेक राज्यों में विभाजित था और उसके राजवारे आपस में लड़- भिड़ रहे थे। तथा दूसरी ओर विदेशी आक्रांता भारत को पद-दलित करने के भाव से लगातार आगे बढ़ रहे थे। अतएव, बहुत पहले ही भारत को राष्ट्र बनाया गया था। यह राज्य नहीं है। राज्य की अपनी एक व्यवस्था होती है, जो राष्ट्र का संरक्षण और पोषण का काम करती है।'(11)
ब्रिटिश शासन ने काफी कोशिश करके भारतीयों के मन में यह कुंठा भरने की कोशिश की कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा और अंग्रेजों ने इसका राष्ट्रीयता से परिचय करवाया। जात हो कि यह भ्रांत धारणा थी। चाहे देश में कभी राजनीतिक एकता रही हो या न रही हो, सांस्कृतिक दृष्टि से भारतवर्ष हमेशा एक राष्ट्र रहा है। सच्चाई तो यह है कि जहाँ यूरोप के विचारकों ने राजनीतिक एकता को राष्ट्रीयता का पर्यायवाची माना और इस्लामी देशों ने धर्म को राष्ट्रीयता का आधार माना, वहीं भारतीय विचारकों ने प्राचीनकाल से ही भारत की सनातन संस्कृति को राष्ट्रीयता का केंद्र बिदु माना। आगे चलकर अनेक अनुभवों और घटनाचक्रों ने सिद्ध कर दिया कि भारतीय विचारक सही थे।
राष्ट्र भारतीय राजनीति की चिन्तन परपरा का आधार रहा है। इसका वर्णन अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि महान ग्रन्थ सबकी श्रद्धा के केंद्र बने तीर्थक्षेत्र, नदी, पर्वत, देवी-देवता, ऋषि-मुनि, सत्पुरुष आदि के साथ हमारा राष्ट्र एकात्मकता की भावना से खड़ा रहा।
वर्तमान में राष्ट्र व राज्य की अवधारणा में व्यापक अंतर्द्वन्द्व देखने को मिलता है। राष्ट्र और राज्य की उत्पत्ति के संबंध में भारतीय विद्वानों ने समय-समय पर अपनी व्याख्या प्रस्तुत की है, परंतु अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके हैं कि भारतवर्ष एक सम्प्रभु राष्ट्र है। भारत की राष्ट्र भावना को समृद्ध करने में अनेक विद्वानों, दार्शनिकों, चिंतकों तथा राजनेताओं ने अपना योगदान दिया है। ऐसे ही महापुरुषों में समादृत हैं- समाजवादी विचारक और राजनेता चन्द्रशेखर। चन्द्रशेखर ने अपने समाजवादी विचारों के माध्यम से भारतवर्ष की राष्ट्र-भावना को समृद्ध किया। उन्होंने एक उन्नत राष्ट्र की परिकल्पना को मूर्त रूप प्रदान किया। यहाँ चन्द्रशेखर के समाजवाद पर विचार करना अपेक्षित है।

चन्द्रशेखर का समाजवाद :
समाजवाद की भारतीय परम्परा में जो विचाराधारा डाॅ. लोहिया, महात्मा गांधी एवं जयप्रकाश नारायण की गतिविधियों में प्रस्फुटित हुई है, वस्तुत: वही समाजवादी विचारधारा अपने विकास क्रम में कुछ नवीन अर्थों, मान्यताओं के साथ चन्द्रशेखर में मुखरित हुई है। इसमें मूलभूत अन्तर है- केवल उन विचारों के क्रियान्वयन में। यह अलग बात है कि एक निश्चित कालान्तराल में समाजवाद में कतिपय दोष भी प्रकट हुए। चूँकि काल परिवर्तनशील होता है। जनमानस के जीवन- मूल्य, रहन-सहन, संस्कृति, वातावरण एवं परिवेश में निरन्तर विकास होता रहता है। विश्व के विशाल देशों, यथा- अमेरिका, रूस,जर्मनी आदि के साथ औद्योगिक संबंधों एवं आधुनिकीरण के अपनाने से हमें अपनी सामाजिक संरचना में भी बहुत कुछ परिवर्तन देखना पड़ा है। इन बदली हुई परिस्थितियों में समाजवादी विचारधारा में परिवर्तन आना अस्वाभाविक नहीं है। वर्तमान समय में समाजवाद को अपने जीवन मूल्य के रूप में स्वीकार वाले नेताओं में चन्द्रशेखर अग्रगण्य हैं।
चन्द्रशेखर के समाजवाद पर पाश्चात्य एवं भारतीय समाजवादी विचारों का व्यापक प्रभाव पड़ा है। बचपन में जब चन्द्रशेखर समता, स्वतंत्रता एवं आर्थिक साम्य आदि विषयों पर चिन्तन प्रारम्भ किया, तो वे कम्यूनिस्ट विचारधारा की ओर आकर्षित हुए। वामपन्थी दलों के प्रति टिप्पणी करते हुए चन्द्रशेखर ने कहा है- “इस देश में प्रत्येक वामपन्थी दल किसी न किसी इस प्रकार की निर्बलता का शिकार रहा है। चाहे वह आवश्यकता से अधिक चतुराई हो या निरा भोलापन, पर उसका परिणाम एक ही निकला है कि इस राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में निर्णायक भूमिका निभाने की क्षमता रखने हुए भी वे कुछ न कर सके। और सदैव राजनीति पर हावी वे लोग रहे, जो सैद्धान्तिक पचड़े में न पड़कर परस्पर विरोधी नीतियों का प्रतिदिन विरोध करते हुए इस देश की गाड़ी को घसीटने रहे। इस दलदल से यह देश कब निकलेगा, कहना कठिन है ।”(12)
उसके पश्चात् चन्द्रशेखर समाजवादी लोगों के सम्पर्क में आये। प्रारम्भ में वे आचार्य नरेन्द्र देव के सम्पर्क में आये तथा उन्हीं के आह्वान पर उन्होंने सोसलिस्ट पार्टी में कार्यकर्ता के रूप में अपने राजनैतिक व्यक्तित्त्व का शुभारम्भ किया। भारतीय समाजवादियों में आचार्य नरेन्द्र देव के अतिरिक्त जिनका प्रभाव चन्द्रशेखर पर पड़ा था, उनमें जयप्रकाश नारायण तथा राममनोहर लोहिया प्रमुख थे। चन्द्रशेखर व्यक्तिगत रूप से लोहिया के विचार, स्पष्टवादिता, सीधे- सादे व्यक्तित्व एवं निष्पक्ष समदर्शिता के कायल थे। यह अलग बात है कि उनके सहयोगी चन्द्रेखर के गले के नीचे कभी नहीं उतरे। महात्मा गाँधी एवं लाल बहादुर शास्त्री से भी चन्द्रशेखर प्रभावित थे ।
चन्द्रशेखर बड़े उद्योगों के राष्ट्रीयकरण, पूँजीपतियों के दमन तथा सामंतवादी व्यवस्था के उन्मूलन के पक्षधर थे। किन्तु साधन की शुद्धता के लोहिया व गाँधी के विचार से वे सहमत थे। उनके अनुसार,- “दूसरे वर्ग का हित करना तथा सोचना ही सही समाजवाद नहीं है।”(13) जातिगत एवं सम्प्रदायगत विषयों में चन्द्रशेखर की सोच अपनी ही तरह की थी, जिनमें परम्परागत भारतीय विचारों का प्रभाव है। जैसा कि उन्होंने कहा है कि,”राष्ट्र तथा समाज के विशेषरूप से बहुसंख्यक वर्ग का कर्तव्य है कि अल्पसंख्यकों के मन से शंकाएँ मिटाने की कोशिश की जाए।
गाँधी जी से चन्द्रशेखर ने स्वदेशी का सिद्धान्त, स्वावलम्बन का सिद्धान्त एवं अपने विचारों को क्रियान्वित करने में अहिंसा के साधन का विचार ग्रहण किया था। जयप्रकाश नारायण से चन्द्रशेखर ने सामन्तवादियों से भूमि आधिग्रहण कर उनका अन्य सार्वजनिक हितों में उपयोग करने एवं कृषि तथा ग्रामीण विकास पर विशेष ध्यान देने का विचार ग्रहण किया।
राम मनोहर लोहिया से चन्द्रशेखर में बेवाक टिप्पणी, निर्भयता पूर्वक विचारों का प्रदर्शन निर्भयतापूर्वक अपने विचार, सिद्धान्त व नियमों के क्रियान्वयन तथा उत्तम विपक्षी की भूमिका निर्वाह करने की शिक्षा ग्रहण की थी। लाल बहादुर शास्त्री से चन्द्रशेखर ने सत्ता व विपक्ष दोनों ही पक्षों को सामंजस्य पूर्वक सकारात्नक तरीके से साथ ले चलने तथा कृषि व स्वदेशी अर्थव्यवस्था के साथ-साथ सीमा सुरक्षा आदि विचारों को ग्रहण किया था। मार्क्स से इन्होंने साम्यवादी व्यवस्था के क्रियान्वयन व पूँजीवाद तथा व्यक्तिगत जमींदारी के उन्मूलन का विचार ग्रहण किया था।
वैचारिक रूप में चन्द्रशेखर के समाजवाद की आलोचना कठिन है, किन्तु सबसे बड़ा दुर्बल पक्ष समाजवाद के क्षेत्र में चन्द्रशेखर का यह है कि उन्होंने ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की कहावत को चरितार्थ कर दिया है। केवल सिद्धान्तों को गिनाने मात्र से यदि समाजवाद की स्थापना हो जाती तो भारतीय ग्रंथ समाजवादी विचारधारा के चरम विचार बिन्दुओं से पटे पड़े हैं। अतः वह कब की स्थापित हो चुकी होती !
समाजवाद, सम्प्रदायवादी विचारों का उन्मूलन गरीबी निवारण, शिक्षित राष्ट्र, धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक सद्भाव व सहिष्णुता की स्थापना, समृद्ध व स्वावलम्बी देश, निर्भय जनता आदि वाक्य सुनने में अमृत तुल्य प्रतीत होते हैं, जिसे चन्द्रशेखर ने सार्थक बनाया। इस प्रकार समाजवाद के विषय में चन्द्रशेखर के विचार बहुत महान हैं।

निष्कर्ष :
उपर्युक्त वर्णन- विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि सभी प्रकार के भेदभाव से मुक्त एक संगठित मानव समुदाय की परिकल्पना ही समाजवाद है। समाजवाद समता और स्वाधीनता के साथ सभी वर्गों की आर्थिक समृद्धि का दर्शन है। यह एक बेहतर समाज की उदात्त अवधारणा है। समाजवाद ‘बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय’ के साथ-साथ ‘विश्व बंधुत्व’ पर बल देता है। समाजवाद वस्तुत: राष्ट्रवाद को संपुष्ट करता है। राष्ट्र के हर नागरिक में समता, स्वतन्त्रता और बंधुता का भाव भर देना ही समाजवाद का मूल उद्देश्य है। और इसमें राष्ट्र का कल्याण अवश्यंभावी निहित है।
प्रखर समाजवादी नेता चन्द्रशेखर ने इन्हीं उदात्त भावों के आधार पर अपने समाजवादी दर्शन की स्थापना की है। उनका समाजवाद कार्ल मार्क्स, गांधी, अंबेडकर, डाॅ. लोहिया तथा जय प्रकाश नारायण के समाजवाद संबंधी उत्कृष्ट विचारों का संयोजन है। चन्द्रशेखर का समाजवाद परंपरागत समाजवादी विचारों का बढ़ाव भी है और निषेध भी। इसके आधार पर श्रेष्ठ समाज और श्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है।

संदर्भ- ग्रंथ- सूची :
1. Encyclopaedia Britannica, p. 756
2. Ramsay Muir: The Socialist Case Examined, p.- 3 (अमर नारायण अग्रवाल : समाजवाद की रूपरेखा, पृ. 25 से उद्धृत)
3. Don Griffiths, What is Socialism, p. 61

4. Don Griffiths, What is Socialism, p. 61, (अमर नारायण अग्रवाल : समाजवाद की रूपरेखा, पृ. 22 और 24 उद्धृत)
5. Encyclopaedia of Social Sciences VI, 13-14, p.188
6. Encyclopaedia of Social Sciences, Vol. 13-14, p. 188
(7) संस्कृत साहित्य में राष्ट्रवाद और भारतीय राज्यशास्त्र- डाॅ. शशि तिवारी, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली, 2002 ई., पृष्ठ- 11
(8) वही, पृष्ठ – 45
(9) भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि- ए आर देसाई ,मैकमिलन प्रकाशन, नई दिल्ली, 1987 ई., पृष्ठ-23
(10) वही, पृष्ठ- 24
(11) वही, पृष्ठ- 108
(12) चन्द्रशेखर : एक समर्पित समाजवादी व्यक्तित्व- हीरालाल चौबे, पृष्ठ-11
(13) मेरी जेल डायरी- चन्द्रशेखर, प्रकाशन सरस्वती बिहार, दरियागंज, नई दिल्ली, 1911 ई., पृष्ठ- 224

– लेखक, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं।

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रचनाकार

Author

  • Dr. U K Sharma

    डाॅ. उमेश कुमार शर्मा, ग्राम+ पो.- डरहार, थाना- नवहट्टा, जिला- सहरसा, बिहार, जन्म- 15 अगस्त, 1985 हिन्दी विषय में एम. ए., पी-एच. डी. तथा नेट/ जे आर एफ उत्तीर्ण। दशवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन सहित दो दर्जन से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रतिभागिता। देश की अनेक पत्र- पत्रिकाओं में दो दर्जन से अधिक शोध- आलेख, कहानियाँ, कविताएँ प्रकाशित। आकाशवाणी से कुछ कहानियों का प्रसारण। संप्रति : सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी, बिहार. Copyright@डाॅ. उमेश कुमार शर्मा/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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