समसामयिक हिंदी कविता : विविध परिदृश्य

समसामयिक हिंदी कविता : विविध परिदृश्य

किसी भी देश या प्रदेश के साहित्य के मूल में जनता की चित्तवृत्ति ही होती है। यह चित्तवृत्ति संस्कार, मूल्य तथा आस्था से युक्त होती है। इसमें आए परिवर्तन का प्रभाव साहित्य पर भी पड़ता दिखाई देता है। इसका प्रमाण संपूर्ण भारतीय साहित्य है, न केवल हिंदी। साहित्यिक प्रवृत्ति की प्रधानता के मूल में भावों की ही प्रधानता होती है। प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व साहित्य में उत्साह, रति, हास, विस्मय भावों की प्रधानता देखने को मिलती है, किन्तु उसके पश्चात् मनुष्य विरोधी, क्रूर और कठिन समय के चलते शोक, भय, घृणा और क्रोध की प्रधानता। ऐसा सामाजिक संस्कार, मूल्य तथा आस्था में आए विघटन के कारण हुआ है।

समसामयिक हिंदी कविता में सामाजिक चेतना को बहुत गंभीर रूप से देखा जा सकता है। वैश्वीकरण के कारण समाज हाशियाकृत हो गया है। समाज की चिंता को काव्य के केंद्र में रखकर समकालीन कवि कविताएँ लिख रहे हैं। समाज की चिंता का कारण बाजारवाद के चलते उत्पन्न विभिन्न समस्याओं से घिरे मानवीय मूल्य हैं। मूल्यों का विघटन ही मनुष्य और उसकी संवेदनशीलता के पतन का कारण है। कविता के केंद्र में वैयक्तिकता के स्थान पर सामुदायिकता की प्रधानता दिखाई देती है।

समकालीन कविता हिंदी साहित्य में अभिव्यक्ति का सशक्त एवं केंद्रीय बिंदु है। उपभोक्ता संस्कृति के चलते उत्पन्न समस्याओं से युक्त समसामयिक हिंदी कविता के विविध परिदृश्य को ढूँढ़ निकालना ही मेरा प्रयास है। समकालीन कविता विविध समस्याओं से युक्त मुक समुदाय की मुखर अभिव्यक्ति है। वैश्वीकरण, बाजारीकरण, पूँजीवादी संस्कृति के सभी मुद्दों को चिह्नित करती कविता है, समकालीन या समसामयिक कविता। इस संस्कृति से उत्पन्न समसामयिक समस्याओं के प्रति प्रतिरोध का स्वर भी समकालीन कविता की प्रमुख विशेषता है।

हमारे देश का वर्तमान समय अनेक प्रकार की सामाजिक समस्याओं से युक्त है। इन विभिन्न प्रकार की सामाजिक समस्याओं से प्राप्त कवि व्यक्ति-विशेष की अनुभूति भी विभिन्न काव्य विषयों से लैस है। जैसे – वैश्वीकरण या बाज़ार, प्रजातंत्र या सत्ता, पूँजीवाद, सांप्रदायिकता, आतंकवाद, प्रदूषण, विस्थापन, स्त्री-विमर्श, गरीबी, भूख और प्रतिरोध आदि। इससे स्पष्ट होता है कि अधिकांश कवियों की कविताएँ भयावहता, शोक, घृणा और निराशा आदि भावों को अभिव्यक्ति देती हैं।

विज्ञान और औद्योगिकीकरण के चलते चीजों का वैश्वीकरण हो गया है। ऐसे में हर किसी को अपने विकास की पड़ी है। किंतु इस वैश्वीकरण से समाज तथा सृष्टि के विकास के स्थान पर विनाश ही अधिक हुआ है। विकास को औद्योगिकीकरण तक ही सीमित कर दिया गया है। ऐसे में संपूर्ण विश्व ही गलत दिशा में आगे बढ़ता हुआ दिखाई देता है। समाज में भयावहता का वातावरण फैल गया है। बाजारीकरण ने उत्पाद करने वाले को भी उपभोक्ता बना दिया है। बाजार पूंजीवाद या वित्त पूंजीवाद ने मनुष्य को बाजार का खिलौना बना कर रख दिया है। जो जीवनावश्यक सभी वस्तुएँ बाजार से खरीद रहा है। अरुण कमल ‘धार’ कविता में इस बाजारु पूँजीवाद को चित्रित करते हुए लिखते हैं कि, “कौन बचा है जिसके आगे / इन हाथों को नहीं पसारा /… सब उधार का, माँगा-चाहा / नमक-तेल, हींग-हल्दी तक / सब  क़र्ज़े का / यह शरीर भी उनका  बंधक / अपना क्या है इस जीवन में / सब तो लिया उधार / सारा लोहा उन लोगों का / अपनी केवल धार।”[1] एक तरह से मनुष्य बाजारी पूँजीवाद का गुलाम बन गया है।

प्रजातंत्र के सत्ताधारी लोग अपनी रोटी सेंकने के लिए जनता तथा देशों को आपस में लड़ा रहे हैं। आज हम देख सकते हैं, लगभग एक साल से यूक्रेन और रूस का युद्ध चल रहा है। यूक्रेन पूर्णत: तबाह हो चुका है। ऐसे युद्धों से किसी का भला नहीं होता है। वहाँ की जमीन बंजर हो गई है। हजारों वर्षों से विकास करते आए देश को वीरान होने में एक साल भी नहीं लगा। इसमें बड़ी मात्रा में मनुष्यता की हार होते हुए दिखाई देती है। कवि असलम हसन ने अपनी कविता ‘युद्ध जीता कौन’ में इसे सुंदर अभिव्यक्ति दी है, “बंजर खेतों में ढूंढना / सिर्फ बारूद की / फसलें / गर्द आलूद / फौजी जूतों में / खोजना / उर्वर मिट्टी के निशान / पूछना उस वीरान शहर से / उसे आबाद होने में / कितना वक्त लगा था / और कितना वक्त / लगा था उसे वीरान होने में / पूछना समय से / युद्ध आखिर / जीता कौन / खौफनाक / जिंदा चीखें / या / मुर्दों का / मौन…।”[2] कुछ न बचा होने के कारण जिंदा लोगों की चीखें खौफनाक बन गई और मृत लोग मुर्दों के रूप में मौन हो गये। दोनों की भी हार होती है। कवि ज्ञानेंद्रपति ऐसे युद्ध के उपकरणों पर एक चिड़िया के माध्यम से रोक लगाने का संकेत देते हैं, “बारूद उगलने वाली लंबी नली के मुँह से / उड़ती है एक चिड़िया / वहाँ उसका घोंसला है।”[3]

हमारे समाज में एक ऐसा तबका भी है जो सभी चीजों, बातों तथा घटित कार्यों से अनजान है। प्रजातंत्र ने समाज को बांट दिया है। विनोद कुमार शुक्ल अपनी कविता ‘अपने हिस्से में लोग आकाश देखते हैं’ में हवा, भूख, भात, रोटी और समय से वंचित तबके का पक्ष लेते हुए लिखते हैं कि “सबके हिस्से की हवा वही हवा नहीं है / अपने हिस्से की भूख के साथ / सब नहीं पाते अपने हिस्से का पूरा भात / बाज़ार में जो दिख रही है / तंदूर में बनती हुई रोटी / सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है। / जो सबकी घड़ी में बज रहा है / वह सबके हिस्से का समय नहीं है / इस समय।”[4] प्रजातंत्र समाज की चिंता करने की बजाए वैश्वीकरण के विकास के पीछे भाग कर वंचितों की समस्याओं को नजरअंदाज ही कर रहा है। वर्गाधारित समाज की निर्मिति ही उनका मुख्य उद्देश्य जान पड़ता है। विनोद शाही के शब्दों में, “उत्तर औद्योगिक पूंजी ने अभावग्रस्त समाज की वंचनाओं को और गहराने का काम जारी रखा है, पर ऐसा करते करते संसाधनों पर काबिज वर्गों ने पूरी मानवजाति के लिए सामूहिक संकट खड़ा कर दिया है। दूषित पर्यावरण सबके जीवन को एक साथ संकटग्रस्त बना रहा है। अधिकारों की लड़ाई अलग-अलग वर्गों तक सीमित न रह कर, सामूहिक मानवाधिकारों की लड़ाई बनती जाती है। सूचना-क्रांति ने अप-संस्कृति के प्रचार प्रसार के द्वारा जो चुनौतियां पेश की हैं उनसे सामूहिक तल पर जीवन-मूल्य विघटित और विखंडित हुए हैं। इसलिए विविधता और सामूहिकता को हम अपने दौर के अलग युगबोधक परिदृश्य की तरह देख रहे हैं।”[5]

पूँजीवादी समाज की बढ़ती इच्छाओं तथा प्रजातंत्र की नकली योजनाओं के कारण आदिवासी समाज अपने जंगलों में भी असुरक्षित होता जा रहा है। कवि मंगलेश डबराल ‘पहाड़ पर लालटेन’ कविता के माध्यम से समाज में आग उत्पन्न करना चाहते हैं। इस आग के माध्यम से चेतना लाने के प्रयास से लिखते हैं कि “दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर / एक तेज़ आँख की तरह / टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई / देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत / बिलखती स्त्रियों के उतारे गए गहने / देखो भूख से बाढ़ से महामारी से मरे हुए / सारे लोग उभर आए हैं चट्टानों से / दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ़ झाड़कर / अपनी भूख को देखो / जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है / जंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही है / और इच्छाएँ दाँत पैने कर रही हैं / पत्थरों पर।”[6] प्रजातंत्र रूपी पूँजीवाद इन जंगलों में प्रवेश कर चुका है और जंगल से दहाड़ मार रहा है। जो दहाड़ इच्छाओं की दहाड़ है। वह पहाड़ के पत्थरों पर अपने दाँत पैने कर रही है, ताकि जंगल संस्कृति को पूर्णत: नष्ट कर सकें। इसकी चिंता कवि विनोद कुमार शुक्ल को भी सता रही है। “आदिवासी तुम जीवित रहना चाहते हो / पर तुम मरने से कैसे बचोगे / यह तुम जानते नहीं / जंगल में हाँका पड़ा है / पहले शेर को मारने के लिए  पड़ता था।”[7] इसी प्रजातंत्र रूपी पूँजीवाद ने ही ये हाँका डाला है। जिसमें आदिवासियों को नक्सली बनाकर मार देने की योजना बनाई गई है।

आधुनिक युगीन साहित्य के केंद्र में समाज था परंतु मूल्यों के विघटन के कारण समाज संकटग्रस्त हो गया है। इन संकटों में सांप्रदायिकता, आतंकवाद, प्रदूषण, विस्थापन, स्त्री, किसान आदि से संबंधित समस्याएँ उभरकर आने लगी। विनोद शाही के शब्दों में कहा जाये तो, “आधुनिक चेतना के हस्तक्षेप ने कविता में ‘सामाजिकता की प्राथमिकता’ पर मोहर लगाई थी। हमारे समय तक आते आते, सामाजिकता के हाशिए पर धकेल दिया गया ‘जीवन’, अचानक संकटग्रस्त होकर समाज के केंद्रीय चिंता में जगह बनाने लगा।”[8]

भारत एक बहुधर्मी देश है। यहाँ जाति, धर्म को लेकर दंगे-फसाद होना आम बात बनकर रह गयी है। समाज साम्प्रदायिकता से ग्रस्त हो गया है। राजनेता अपनी सत्ता की कुर्सी के लिए आम लोगों में साम्प्रदायिकता फैला रहे हैं, एक-दूसरे के प्रति द्वेष पैदा कर रहे हैं। समाज प्रत्येक वस्तु को धार्मिक दृष्टि से देखने लगा है। सत्ताधारी समाज हर किसी को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने में लगा है। अंधभक्ति चरम अवस्था पर है। मील के पत्थर को भी धर्म का रूप देकर समाज को बाँटने का कार्य सत्ताधारी लोग कर रहे हैं। कवि रमाकांत दायमा ने ‘आस्था’ कविता में इसे चित्रित करते हुए लिखा है, “वह मील का पत्थर / जो सड़क के किनारे हुआ करता था / जब से सड़क के बीचों-बीच आ गया है / किसी ने उस पर फूल चढ़ा दिए / किसी ने दिया जला दिया / अब लोग जो / उस पर बैठकर / सुस्ताया करते थे पल दो पल / उसकी प्रदक्षिणा कर आगे बढ़ने लगे हैं।”[9] इस प्रकार आस्था अंधश्रद्धा का और अंधश्रद्धा कट्टर धार्मिकता का रूप धारण करती जा रही है। ऐसी धार्मिकता को दूर करने के लिए समाज में मनुष्यता के भाव को उत्पन्न करना बहुत आवश्यक हो जाता है। विनोद शाही लिखते हैं कि “विवेक खो चुके समाज को मूर्ख बनाने का काम अब बाजार ने करना शुरू कर दिया है। तो, मनुष्य को उसकी नींद से जगाने के लिए सबसे पहले तो धर्म को विदायगी देनी होगी। फिर अपने आदमी होने की पहचान को खुद हासिल करने के हालात के मुकाबिल होना पड़ेगा।”[10]

अशुद्ध हवा के कारण कोरोना जैसी महामारियों का प्रकोप भी एक गंभीर समस्या बन गयी है। कोरोना ने तो सामूहिकता का पाठ पढ़ा दिया है। मनुष्य व्यक्तिगत जीवन से सामूहिक जीवन यापन करने में विश्वास करने लगा है। इसे स्पष्ट करते हुए विनोद शाही लिखते हैं कि “अब महामारियो और प्रदूषित पर्यावरण से उपजे संकट ने यह साबित करना आरंभ कर दिया है कि किसी प्राणी का जीवन ‘अलहदगी’ में संभव ही नहीं। जीवाणुओं से लेकर स्तन-धारियों तक, सबका जीवन एक दूसरे पर निर्भर है। इससे ‘जीवन की सामूहिकता’ की ओर मानव जाति की निगाह आ गई है।”[11]

प्रदूषण या पर्यावरण की हानि का परिणाम है महामारी। फिलहाल कोरोना का समय है। सारा विश्व कोरोना से जूझ रहा है, बचने का कोई उपाय नहीं रहा है। अन्य महामारियो में ईश्वर पर विश्वास कर प्रार्थनाएं की गई हैं परंतु कोरोना ने सर्वप्रथम देवालयों को ही बंद कर दिया और मनुष्य को निरीश्वर बना दिया। मदन कश्यप लिखते हैं, “यह एक तुम्हारा स्पर्श ही तो था / कि जिससे होती थी ईश्वर के होने की अनुभूति / कोरोना ने मुझे निरीश्वर बना दिया।”[12] महामारी निर्धन लोगों के लिए दुखद हो सकती हैं परंतु पूँजीपतियों और राजनेताओं के लिए सुअवसर लाती है। अरुण होता के शब्दों में, “महामारीयों में सत्ता का आह्वान होता है ‘आपदा में अवसर।’ निर्धन, गरीब, मजदूर और श्रमजीवी लोगों के लिए ‘अवसर’ होता है अपने प्रियजन, आत्मीय को तड़पते हुए या मरते हुए देखना जब कि पूंजीपतियों, बड़े व्यापारियों के लिए महामारी ढाई सौ से चार सौ गुना मुनाफा कमाने का अवसर मुहैया कराती है। राजनेताओं का तो क्या कहना, उनके लिए हमेशा अवसर ही अवसर हुआ करता है। आपदा के दौर में उनका अवसर कई-कई गुना बढ़ जाता है।”[13] अरुण होता ने महामारी पूँजीपति और राजनेताओं के लिए किस प्रकार मुनाफे का अवसर प्रदान करती है, इसका पर्दाफाश किया है।

आधी आबादी  कहा जाने वाला स्त्री समाज सदियों से उपेक्षित रहा है। उसे एक बोझ ही समझा गया है। भ्रूण हत्या, देह-शोषण के साथ-साथ मानसिक रूप से भी वह प्रताड़ित ही रही है। वह अपने अधिकार, अस्तित्व तथा अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है। कवयित्री निवेदिता दिनकर ने एक बाप बेटी को विवाह कुंड में धकेलने को क्यों मजबूर होता है? इसका मार्मिक चित्रण किया है, “जब एक बाप अपनी चौदह साल की बेटी को / दुल्हन बनने के लिए इसलिए मजबूर करता है / क्योंकि / एक भूखा पेट कम हो जाएगा…”[14] (कविता – ‘ईश्वर के प्रति मेरी आस्था चरम पर है/थी…’ ) इसी प्रकार कवयित्री अनामिका भी स्त्री पीड़ा को उकेरती हुई लिखती है, “सारा शहर चुप है, / धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन / बुझ चुकी है आख़िरी चूल्हे की राख भी, / और वह / अपने ही वजूद की आँच के आगे / औचक हड़बड़ी में/ खुद को ही  सानती, / खुद को ही गूँधती हुई बार-बार / खुश है कि रोटी बेलती है जैसे पृथ्वी”[15] (कविता – ‘स्त्री’) आज भी स्त्री चूल्हा-चौकी से घिरी हुई है, जहाँ वह अपने वजूद को तलाशती नज़र आती है। अन्य एक कवयित्री नीलेश रघुवंशी भी स्त्री के मरने की इच्छा को प्रकट करती हुई दिखाई देती है, “नए साल के आगमन पर पूछा गया सिंघाड़े बेचने वाली से / नए साल के बारे में क्या सोचा है तुमने / सिंघाड़े बेचती स्त्री ने कहा / नए साल में हम खुट जाएँ / खुट जाएँ मतलब… / खुट जाएँ मतलब खुट जाएँ याने हम मर जाएँ /… मुश्किल से जबरिया हँसी को रोकती बोली / क्यों खुटने से डरते हो? ? ? / हम तो रोज खुटते हैं…”[16] (कविता – ‘खुट जाएँ’)

इस प्रकार की अनेक समस्याओं से ग्रस्त समय में निराशा के बीच से प्रतिरोध का स्वर भी उभर कर आता दिखाई देता है। अब स्त्री-पीड़ा से उभरने का समय है। इसलिए स्त्रियों का प्रतिरोधी स्वर भी उभरकर सामने आ रहा है। संजय कुंदन ने ‘रसोई’ कविता में लड़कियों को मुखर रूप में चित्रित करते हुए लिखा है, “अब लड़कियां खुलकर कहती हैं / वे खाना बनाना नहीं जानतीं / वे घर का कोई काम नहीं जानतीं / अब कोई नहीं कह पाता कि / वे कैसी स्त्रियां हैं!”[17] यह प्रतिरोधी स्वर तभी उत्पन्न और अभिव्यक्त होता है जब मनुष्य को अस्तित्व का अहसास होता है। इसका बोध संकट-ग्रस्त समय में ही होता है। विनोद शाही के शब्दों में, “ ‘जीवन में होना’ और ‘जीवित होना’ एक ही बात नहीं है। जीवित प्राणियों का, जीवन में होना, तब शुरू होता है, जब वे इस ‘अहसास’ से युक्त होते हैं कि वे जीवित हैं। यह एक तरह की ‘चेतना’ है, जिसे हम उस वक्त पाते हैं, जब हमारा जीवन संकट-ग्रस्त होता है।”[18]

निवेदिता दिनकर ने ‘कैरेक्टर सर्टिफिकेट!!’ कविता में स्त्री को समाज के बंधनों से बेपरवाह दिखाया है,  “आप लोगों की वजह से / हम बार बार / कैरेक्टर लेस / बदतमीज / गलत लड़कियां / बनती हैं / और / हमें / नाज है / गुरूर है / अपने पर / बेइंतेहा… / और / और अपनी बेअदबी के / समुंदर पर… / बा अदब!!!”[19] खेमकरण ‘सोमन’ की ‘नदी और मछली’ कविता भी स्त्री प्रतिरोध की कविता है। यह प्रतिरोध का स्वर अनेक समकालीन कवियों में दिखाई देता है। लीलाधर मंडलोई इस प्रतिरोध की ‘आग’ के बिना अपनी कविता की कल्पना नहीं करते हैं। “मेरी मेज पर / टकराते हैं / शब्द से शब्द / एक चिंगारी उठती है / और कविता में आग की तरह / फैल जाती है / आग नहीं तो कविता नहीं”[20]

उसी प्रकार एकांत श्रीवास्तव की ‘लोहा’ कविता में धरती को बचाने के लिए कवि लोहे को खून में बचा कर रखने की बात करते हैं, “मैं तो बचा कर रखना चाहता हूँ / उस लोहे को जो मेरे खून में है / जीने के लिए इस संसार में / रोज लोहा लेना पड़ता है / एक लोहा रोटी के लिए लेना पड़ता है / दूसरा इज्जत के साथ / उसे खाने के लिए / एक लोहा पुरखों के बीज को / बचाने के लिए लेना पड़ता है / दूसरा उसे उगाने के लिए / मिट्टी में, हवा में, पानी में / पालक में और खून में जो लोहा है / यही सारा लोहा काम आता है एक दिन / फूल जैसी धरती को बचाने में”[21] लोहे को बचाना ही जीवन को बचाना है। यह काम कविता के माध्याम से ही किया जाता है। वह कैसे होता है? इसे विनोद शाही के शब्दों में स्पष्ट किया जा सकता है, “अब हमें जीवन को और जीने लायक स्थितियों को बचाए रखने के लिए संघर्ष करना है। कविता यह काम कैसे करती है? वह समय को ‘जीवनानुभूति’ में बदलती है और दृश्य को ‘दैहिक-जैविक संवेदन’ में। ऐसा करके वह हमारे समय और परिवेश के मौजूदा दृश्य को जीने लायक बनाती है।”[22]

इस प्रकार समकालीनता या समसामयिकता कालबोध और मूल्यबोध का एक मिश्रित रूप है। स्वतंत्रता के पश्चात इच्छाओं की अपूर्णता की निराशा ही मोहभंग में परिवर्तित हुई है। विषमता से युक्त समाज के विरुद्ध चेतना लाना समकालीन कविता का उद्देश रहा है। जिसके केंद्र में मनुष्य का अस्तित्व और अस्मिता है।

वैश्वीकरण और बाजारीकरण ने पूँजीवाद एवं उपभोक्ता संस्कृति को जन्म दिया है। जिसके कारण समाज में अनेक समस्याएँ उभर कर आई हैं। जीवनावश्यक वस्तुओं के लिए बाजार पर निर्भर रहना पड़ता है। मनुष्य महँगाई का शिकार होता जा रहा है। जीवन क़र्ज़े से डूब रहा है। चारों ओर दुख का वातावरण है। युद्ध, अशांति और विनाश का युग है। समकालीन कवि इसे रोकने का प्रयास करते दिखाई देते हैं।

पूँजीवादी तथा बाजारवादी समाज विकास के नाम पर पर्यावरण को दूषित कर रहा है जिसका खामियाजा सुविधाओं से वंचित समाज को भुगतना पड़ रहा है। दूषित पर्यावरण से उत्पन्न विभिन्न प्रकार की शारीरिक विकृतियों एवं महामारियों का शिकार यही हाशियाकृत समाज बनता जा रहा है। सुविधाभोगी, लुटेरा, षड्यंत्रकारी समाज सत्ता को धारण कर बैठा हुआ है जिसके कारण सामान्यजन का जीवन त्राहिमाम है।

आज आदि मानव तथा जंगल के संरक्षक कहे जाने वाले आदिवासियों को विकास के नाम पर उनके जंगलों से भी उन्हें बेदखल किया जा रहा है। कहां जाएं? क्या करें? की दुविधावस्था आन पड़ी है। ऐसे में समकालीन कवि चेतना की आग को अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से जलाए रखने में प्रयासरत हैं। सांप्रदायिकता और आतंक से समाज घिरा हुआ है। स्त्री, किसान आदि के समक्ष अपने अस्तित्व और अस्मिता का सवाल प्रखर रूप से खड़ा है। आज ‘जीवन’ को ही सामाजिकता के हाशिए पर धकेल दिया गया है। धार्मिक कट्टरता के कारण मनुष्य-मनुष्य के खिलाफ खड़ा हो गया है। एक दूसरे की जान तक लेने को तैयार हैं। इसी धार्मिक कट्टरता ने समाज में अशांति का वातावरण उत्पन्न किया है। सामान्यजन अपने ही घर में असुरक्षितता महसूस कर रहे हैं। औद्योगिकरण एवं बाजारीकरण के कारण जल एवं वायु दूषित हो रहे हैं। दूषित वातावरण का परिणाम ही महामारी है। हमारा देश महामारियों से ग्रस्त देश रहा है। परंतु आज से पहले आई महामारियों में मनुष्य समाज ईश्वर की और आशान्वित होकर याचना करता था, परंतु वर्तमान में आई कोरोना महामारी ने ईश्वर को ही बंधक बना दिया है। पूँजीपतियों और राजनेताओं के लिए महामारी सुअवसर तो सामान्य जन के लिए दुखद अवसर लेकर आती है।

स्त्री समाज सदियों से त्रस्त है। समकालीन दौर में स्त्री के अधिकारों का और अस्तित्व का हनन बड़ी मात्रा में हुआ है। जिसकी लड़ाई समकालीन रचनाकार लड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं। कविताओं के माध्यम से प्रतिरोध के स्वर को धार देने का कार्य हो रहा है। स्त्री मुख्य रूप से सत्ताधारी समाज का विरोध करते दिखाई दे रही है। विविध समस्याओं को समकालीन रचनाकार अपनी कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं। जिनका मुख्य उद्देश्य सामाजिक चेतना लाना तथा समानता और मनुष्यत्व का भाव उत्पन्न करना है।

कवि जीवन-संघर्ष करने के लिए तैयार है। इस जीवन-संघर्ष के लिए तथा धरती को बचाने के लिए मनुष्यता को बचा कर रखना भी उतना ही आवश्यक है। कवि खेमकरण ‘सोमन’ ने ‘इस वर्ष’ कविता में मनुष्य बनने का संकल्प लेने की बात करते हुए लिखते हैं –

चिड़िया बनकर तय करो

एक सार्थक उड़ान

बादल रूप धरकर

नाप लो आसमान!

नदी बनकर बहो

दिनरात निरंतर

 सुंदर मनुष्य बनो जो कर न सके–           

मनुष्यमनुष्य में अंतर”[23] 

संदर्भ :-

[1] आधुनिक भारतीय कविता संचयन 1950-2010 हिंदी, संपादक- विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पृष्ठ 184 (कविता- ‘धार’)

[2] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व,  पृष्ठ 42

[3] आधुनिक भारतीय कविता संचयन 1950-2010  हिंदी, संपादक – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पृष्ठ 167 (‘एक टैंक’ कविता)

[4] आधुनिक भारतीय कविता संचयन 1950-2010 हिंदी, संपादक – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पृष्ठ 108

[5] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 72(विनोद शाही, ‘कविता का जीवन, जीवन की कविता’ लेख)

[6] आधुनिक भारतीय कविता संचयन  1950-2010 हिंदी, संपादक – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पृष्ठ 163

[7] कथादेश, वर्ष 40, अंक 11, जनवरी 2023, संपादक – हरिनारायण, पृष्ठ 71

[8] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 72 (विनोद शाही – ‘कविता का जीवन, जीवन की कविता लेख)

[9] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 39

[10] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 74 (विनोद शाही – ‘कविता का जीवन, जीवन की कविता’ लेख)

[11] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 72 (विनोद शाही – ‘कविता का जीवन, जीवन की कविता’ लेख)

[12] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक- अपूर्व, पृष्ठ 79, उद्धृत

[13] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 79

[14] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 44,

[15] आधुनिक भारतीय कविता संचयन 1950-2010 हिंदी, पृष्ठ 210, सपांदक – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

[16] आधुनिक भारतीय कविता संचयन 1950-2010 हिंदी,  संपादक – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पृष्ठ 226

[17] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 37

[18] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 75(विनोद शाही – ‘कविता का जीवन, जीवन की कविता’ लेख)

[19] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 45

[20] आधुनिक भारतीय कविता संचयन 1950-2010 हिंदी, संपादक – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पृष्ठ 183

[21] आधुनिक भारतीय कविता संचयन 1950-2010 हिंदी, संपादक – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पृष्ठ 213

[22] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 73, (विनोद शाही – ‘कविता का जीवन, जीवन की कविता’ लेख)

[23] पाखी, वर्ष 15, अंक 4, जनवरी 2023, संपादक – अपूर्व, पृष्ठ 47

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रचनाकार

Author

  • डॉ. आरले श्रीकांत लक्ष्मणराव

    जन्म : शुक्रवार, 10 जुलाई, 1987 (ग्राम : कार्ला (खुर्द), तहसील : बिलोली, जिला : नांदेड, राज्य : महाराष्ट्र)शिक्षा : स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाडा विश्वविद्यालय, नांदेड (महाराष्ट्र) से हिन्दी, इतिहास एवं अर्थशास्त्र में बी.ए. ; हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद (तेलंगाना) से हिन्दी में एम.ए., एम.फिल.; अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद (तेलंगाना) से ‘हिंदी और मराठी काव्यशास्त्र में रस सिद्धांत’ शोध विषय पर पीएच.डी.; हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, दूरस्थ शिक्षा एवं आभासी अधिगम केन्द्र, हैदराबाद (तेलंगाना) से हिन्दी अनुवाद अध्ययन में स्नातकोत्तर प्रमाणपत्र; यूजीसी-नेट (जून-2012); सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय – सेट (दिसंबर-2013) ।कार्यानुभव : आईकोनमा प्राईवेट लिमिटेड, हैदराबाद (तेलंगाना) में 26 अगस्त, 2015 से 31 अक्तूबर, 2016 तक विषय-वस्तु सह हिन्दी अनुवादक । बेंगलोर विश्वविद्यालय, ज्ञान भारती कैंपस, बेंगलोर (कर्नाटक) में 05 मार्च, 2018 से 09 फरवरी, 2019 तक अतिथि प्राध्यापक । संत जोसफ़स् महाविद्यालय (स्वायत्त), बेंगलोर (कर्नाटक) में 05 दिसंबर, 2018 से 09 फरवरी, 2019 तक अतिथि प्राध्यापक । तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय, तिरुवारूर (तमिलनाडु) में 11 फरवरी, 2019 से 14 मई, 2019 तक सहायक प्रोफेसर (संविदा) । तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय, तिरुवारूर (तमिलनाडु) में 28 जून, 2019 से 26 सितम्बर, 2019 तक अतिथि प्राध्यापक । संप्रति 28 सितम्बर, 2019 से श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (अंगीभूत इकाई बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार) में सहायक प्राध्यापक एवं स्नातकोत्तर हिंदी विभागाध्यक्ष पद पर कार्यरत । श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (अंगीभूत इकाई बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार) में 30 नवम्बर, 2019 से 26 जुलाई, 2022 तक परीक्षा नियंत्रक के रूप में कार्य किया । 05 जनवरी, 2020 से इग्नू, क्षेत्रीय केंद्र दरभंगा, अध्ययन केंद्र श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (अंगीभूत इकाई बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार) में हिंदी काउंसिलर । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में आलेख एवं रचनाएँ प्रकाशित ।प्रकाशित ग्रंथ : रस विमर्श : आचार्य रामचंद्र शुक्ल एवं डॉ. केशव नारायण वाटवे (2016), ईशा ज्ञानदीप प्रकाशन, नई दिल्ली।Copyright@डॉ. आरले श्रीकांत लक्ष्मणराव/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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