सफेद आंचल

रात बीत चुकी थी, सुबह का स्वच्छ आसमान धीरे-धीरे लाल रंग में परिणत हो रहा था । पर्वत की आड़ से भगवान भुवन भास्कर अपनी लालिमा को आसमान में इस तरह बिखेर रहा था जैसे लाल चुनरी से लिपटी नवविवाहिता बधु हो। पूरब दिशा से आने वाला प्रातः कालीन शीतल मंद पवन प्राणियों में नई चेतना भर रहा था । लोग अपने-अपने घरों से निकलकर प्रातः कालीन भ्रमण के लिए सड़क पर आने लगे।शादी में रात भर जगे रहने से मुझे थकान और आलस्य महसूस होने लगा । दरवाजे पर काफी भीड़ और चारों ओर कोलाहल हो रहा था। डीजे की अभद्र आवाज अब भी कानों को फाड़ रही थी। मैं हमेशा से एकांत प्रिय रहा हूं अकेले बैठना ,घूमना कुछ सोचते रहना और अपनी कल्पनाओं की दुनियां में खो जाना मेरी आदत सी बन गई । मेरे दोस्त दरवाजे पर बैठकर गप्पे मारने लगे। मैं चुपचाप वहां से निकलकर गांव की पास वाली सड़क पर एकान्त भ्रमण करने लगा। मेरा मन ना जाने क्यों खोया खोया सा लग रहा था । कुछ नई कुछ पुरानी स्मृतियां मेरे मन में पानी के बुलबुले की तरह आती और विलुप्त हो जाती । तभी मुझे अचानक संध्या चाची की याद आ गई । हां संध्या चाची, गांव की और गांव के बच्चों की सबसे अच्छी चाची।
संध्या चाची तो इसी गांव की है ,अब भी यहीं रहती होगी ना? कहां जाएगी बेचारी, मां ने तो कहा था कि अब वह अपने मायके में हीं रहती है ,यही तो उसका मायका है, जरूर यहीं रहती होगी… इस तरह मन में ना जाने कितने प्रश्न उभरने लगे ।
संध्या चाची को अपना गांव छोड़े बीस साल हो गए, उस समय मैं पांच साल का अबोध बच्चा था, परंतु उसकी याद मन से कभी नहीं गई ।आज भी उसकी धुंधली छवि आंखों में समाई हुई है । कितनी अच्छी थी वह गांव के सारे बच्चे उनके अपने हीं बच्चे थे ।आंगन में लगे अमरूद के पेड़ से टोकरी भर अमरुद तोड़कर जब वह बच्चों में बांटती तो सारे बच्चे खुशी से झूम उठते थे । मैं तो हमेशा उसी के आंगन में खेलता रहता था । वह कुसमी अमरुद जो फोड़ने पर सिंदूर की तरह लाल दिखता था उसके आगे अपने घर की मखन मलाई भी नहीं भाती थी ।दो चार अमरुद देकर जब वह गोद में उठाकर चुमती तो मैं नेहाल हो जाता । मेरी दीदी भी हमेशा उसी के आंगन में रहती थी । बाध से पटुआ साग तोड़कर चाची को ला देती और बदले में ढेर सारे अमरूद पाती । हमेशा उसके आंगन में बच्चों की टोली लगी रहती थी । क्या जात क्या परजात चाची सबकी चहेती थी। इतना अच्छा स्वभाव विचार होते हुए भी चाची को अपने गांव में रहना नसीब नहीं हुआ। काश ! मैं उससे मिल पाता , इतने साल हो गए क्या पता जीती भी है या….. राम.. राम ,ऐसा नहीं हो सकता उम्र में तो मेरी मां से बहुत छोटी है तभी तो मां को बडकी बहीन दाय कहकर बुलाती थी ।
मन में इसी तरह तर्क वितर्क कर हीं रहा था कि तभी मेरी हीं उम्र का एक युवक मेरे पास आकर मेरे साथ साथ चलने लगा । वह मुझसे कुछ पूछना चाह हीं रहा था कि उससे पहले मैं हीं पूछ बैठा,- भाई !आप इसी गांव के रहने वाले हैं ना?
उसने हां में सिर हिलाया । मैं बातचीत का क्रम जारी रखते हुए बोला – मैं पहली बार दोस्त की शादी में यहां आया हूं, कोसी के किनारे बसा प्राकृतिक सुषमाओं से भरपूर आपका गांव बहुत हीं रमणीक लग रहा है । युवक उदास मन से बोला ,नहीं भाई प्राकृतिक सुषमा से भरपूर होते हुए भी इस गांव को कोसी की भयंकर त्रासदी झेलनी पड़ती है । कभी-कभी तो गांव वीरान सा हो जाता है । मैंने कहा जो भी हो गांव बड़ा अच्छा लग रहा है । युवक कुछ नहीं बोला, उसे चुप देखकर मैं निवेदन भरे स्वर में बोला -भाई साहब एक बात पूछूं ? उसने कहा हां हां पूछिए ना क्या पूछना है ..
मैंने कहा – संध्या देवी नाम की एक विधवा औरत इसी गांव में रहती है ना ? क्या आप उसे जानते हैं?
युवक आश्चर्य से मुझे देखते हुए बोला- हां हां इसी गांव में रहती है, मैं उसे जानता हूं पर आप उसे कैसे जानते हैं ?
मैंने कहा – वह मेरे हीं गांव की है , रिश्ते में मुझे चाची लगेगी । आज से बीस साल पहले वह गांव छोड़कर चली आई थी ,तब से यही रहती है ।
युवक कुछ घृणित दृष्टि से मुझे देखते हुए बोला- गांव छोड़कर आई नहीं थी ,बल्कि आपके गांव वालों ने उसे बड़ी बेरहमी से गांव से निकाल दिया था ।
शर्म से मेरा सिर झुक गया ।आगे कुछ बोलने की हिम्मत नहीं रही, क्योंकि युवक ने जो कुछ कहा , बिल्कुल सत्य था । एक अपराधी की तरह चुपचाप सिर झुका कर खड़ा रहा । कुछ देर तक हम दोनों चुप रहे अंत में युवक हीं बोला क्यों उससे मिलना चाहते हैं क्या ?
मुझे चुप देखकर युवक फिर बोला- देखिए यहीं से मंदिर दिखाई देता है , वहीं रहती है । मंदिर हीं उसका घर है , रात दिन पूजा आरती, भजन कीर्तन में लगी रहती है ।
मैंने विनम्रता पूर्वक कहा -भाई ! कृप्या उससे मिला दें तो बड़ी मेहरबानी होगी। बड़ा मन करता है चाची से मिलने का पता नहीं फिर कभी इधर आ पाऊंगा या नहीं ।
आगे आगे युवक और उसके पीछे पीछे मौन साधे मैं चुपचाप चला जा रहा था । मन तो उससे बात करने की हिलकोरियां ले रहा था पर आत्मा उसकी बात का अपराध बोध भाव से इतना भर गई थी कि बात करने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी ।
गांव के बीचो बीच एक छोटा सा भव्य मंदिर धर्म रूपी प्रकाश फैलाने वाला नक्षत्र मध्य देदीप्यमान सूर्य की तरह लग रहा था । मंदिर में विराजमान राधा कृष्ण की मूर्ति के आगे सफेद वस्त्र में लिपटी योगासन की मुद्रा में लीन तुलसी माला का जाप करती हुई गिरिधर गोपाल की मीरा की तरह दिखने वाली साध्वी स्त्री की तरफ इशारा करते हुए युवक ने कहा वही है आपकी संध्या चाची, मगर उससे मिलने के लिए तो आपको घंटों इंतजार करना पड़ेगा, पता नहीं कब खत्म होगी उसकी साधना कभी-कभी तो सूर्यास्त के बाद हीं मंदिर से बाहर निकलती है ।
मैंने हाथ जोड़ कर विनम्रता पूर्वक कहा – धन्यवाद भाई! आपने चाची का दर्शन करा दिया, अब आप जाइए मैं यहीं बैठकर तब तक प्रतीक्षा करता रहूंगा।
युवक चला गया । गांव की अनेक औरतें ,युवक युक्तियां ,ब्रिद्ध बच्चे सब मंदिर में आए गए परंतु उस तपस्विनी की तपस्या में कोई बाधा नहीं हुई ,मंदिर के एक कोने में पद्मासन में बैठी अपनी साधना में लीन वह पत्थर की मूर्ति की तरह लग रही थी । मैं मंदिर के बाहर एक घने छायादार वृक्ष के नीचे बैठकर अपलक दृष्टि से उसे निहारने लगा। उसके जीवन से जुड़े अनेकों चित्र जिन्हें कुछ तो मेरी नन्हीं आंखों ने स्वयं देखा था और कुछ बड़ा होने पर मां और दादी से सुना एक एक कर उभरने लगे ।
नौ वर्ष की छोटी बच्ची और पैंतीस साल का हट्टा कट्टा जवान मर्द के साथ ब्याह कर ससुराल आई थी । गुड्डा गुड्डी के खेल में हीं शायद शादी ब्याह की बात समझती होगी ,पति क्या होता है, दांपत्य जीवन कैसा होता है उसका तो भनक भी नहीं होगा उसके निर्मल सुकोमल मन में । कली की कोंढ़ से पुष्प की पंखुड़ी अभी अर्धखिली भी नहीं हुई थी कि विधाता ने ऐसा कुठाराघात किया कि लाल लिवास में चहकती फुदकती गुड़िया को सफेद कफन में लपेट दिया गया । वह बाल विधवा बन गई । परिजनों को रोते बिलखते देखकर वह भी रो रही थी परंतु यह नहीं समझ रही थी कि कुछ दिनों में सबका रोना-धोना शांत हो जाएगा पर उसे तो सारा जीवन रोना पड़ेगा ।
समय का चक्र कभी रुकता नहीं ,धीरे-धीरे वह कली से कुसुम में परिणत हो गई । यौवन की मादकता सफेद कफन में छुपाए भी नहीं छुप रही थी। पति -पत्नी, दांपत्य जीवन के साथ-साथ दुनियां की सारी बातें समझने लगी, पर उसके जीवन में अब रह हीं क्या गया था बूढ़े सास-ससुर की सेवा में रत घर गृहस्ती की व्यस्तता में व्यस्त हमेशा वैधव्य धर्म का पालन करती हुई यौवन का भार ढो रही थी । लोग उसके दुख से दुखी थे पर उसे किसी से कोई शिकवा शिकायत नहीं थी । स्वभाव से हंसमुख और मिलनसार होने के कारण उसके आस पास हमेशा गांव भर की औरतें ,लड़के लड़कियां ,बच्चे सब पढ़े रहते थे ,ऊपर से उसके आंगन का वह कुसमी अमरुद जिसे खिला खिला कर वह सब की प्रिय चाची बन गई थी ।
जिसका भी मंड़वा कोहबर में वह नहीं जाती वह सूना हीं रहता था ,उसके आते हीं रौनक आ जाती थी, हंसते हंसाते सब को लोटपोट कर देती थी । लोगों को विश्वास नहीं होता था कि जिसके जीवन में प्रेम रस का एक बूंद भी ना हो वह दूसरों के जीवन को कैसे प्रेम से सराबोर कर देती है । किस्सा पिहानी , हंसी मजाक यही सबसे शायद उसका नीरस जीवन सुगमता पूर्वक कट रहा था ।
परिवार में उसकी गोतनियों के ढेर सारे बच्चे हुए सब का लालन-पालन उसी ने किया । उसकी अपनी मझली गोतनी उसे सहेली की तरह मानती थी कभी कोई छोटी मोटी कहासुनी भी नहीं हुई होगी । गांव घर की छोटी-बड़ी सभी गोतनियों की चहेती बनी हुई थी।
घोर गरीबी के बीच हंसता खिलखिलाता एक छोटा सा परिवार के साथ उसके जीवन की गाड़ी खींचती चली जा रही थी पर ईश्वर को उसका यह सुख भी मंजूर नहीं हुआ । गांव के हीं एक दरिंदे भेड़िए की वक्र दृष्टि हमेशा उस पर पड़ी रहती थी । खिल खिलाता हुआ नवयौवन का भार ढोने में कभी उसका पैर नहीं फिसला , मादकता मोहकता से लवालव पराग विखेरता हुआ यौवन पर कभी किसी भंवरे को फटकने तक नहीं दिया पर जब यौवन ढलने लगा तब पता नहीं कैसे उस भेड़िए के बहकावे में आकर अपने सफेद आंचल पर एक काला दाग लगा लिया । कुछ ही दिनों के बाद पाप का परिणाम जब कमल में बंद भौंरे की तरह भनभनाने लगा तो समाज में खलबली मच गई । श्रद्धा की देवी समझी जाने वाली मूर्ति को सब समाज से बाहर फेंकने में हीं भलाई समझा ।
सुहागन औरतें अपनी चूड़ी और सिंदूर की आड़ में कौन सा पाप नहीं करती पर उसका सुहाग हर पाप को ढक लेता है , विधवा स्त्री पति के गुजरते हीं समाज के लिए एक जीती जागती लाश बन जाती है फिर उससे यदि जाने अनजाने में भी कोई भूल हो जाए तो भला समाज में रखना कौन पसंद करेगा ,यही तो अंतर होता है सुहागन स्त्री और विधवा स्त्री में ।
सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था, गुलाबी आसमान धीरे-धीरे उदास और बदरंग होता गया । गांव के बीच पीपल वृक्ष के तले बने चबूतरे पर पंच लोग पधारने लगे ,आज संध्या चाची के भाग्य का फैसला होना था । भेड़िए को भी अपने कुकर्मों का कुछ दंड मिले इसलिए पंचायत बुलाई गई ।
एक संध्या जिसके आगमन से लोग अच्छे कर्मों की ओर बढ़ने लगते हैं, पापी भी मंदिर मस्जिद की ओर दौड़ लगाने लगते हैं और दूसरी यह संध्या जो निर्विकार दृष्टि से शुन्य को निहार रही थी, पता नहीं पंच लोग क्या सजा देंगे । सजा तो बेचारी को मिल हीं चुकी थी, परिजनों का तिरस्कार से बड़ी सजा भला क्या हो सकती है । कल तक जो सबकी चहेती थी आज सब उससे मुंह मोड़ लिये। विधाता से कठोर सजा पहले हीं पा चुकी उससे बड़ी सजा भला और क्या हो सकती है? भाग्य किसी को नहीं छोड़ता दुख हो या सुख भोगना तो पड़ता हीं है। बेचारी संध्या चाची भी भाग्य के भरोसे दहलीज पर खड़ी प्रतीक्षा करने लगी देखें भाग्य कहां ले जाता है।
सभी पंच लोग आ गए ,बस गांव के श्रीमान साहब के आने की देर थी कुछ देर में वे भी आ गए । आते हीं सरपंच साहब से बोले- क्या बताऊं सरपंच साहब ! अब तो गांव में रहना भी मुश्किल हो गया है कुकर्मियों ने तो जीना हराम कर दिया है ।
सरपंच साहब बोले- बात तो सही है श्रीमान जी! पर क्या किया जाए ऐसा कुकर्म तो हर गांव में होता हीं रहता है..।
दांत पीसते हुए श्रीमान जी बोले ऐसे कुकर्मियों को ऐसी सजा मिले कि फिर कभी ऐसी गलती करने का साहस नहीं कर सके ।
पान का पिक थूकते हुए सरपंच साहब बोले- अब मुद्दे की बात हो ,क्या दोनों पक्षों के लोग आ गए ?
श्रीमान जी बोले हां साहब सब आ गए अब इनसे पूछताछ किया जाए..।
क्यों रघ्घू, अपनी बीवी के होते हुए भी तुमने ऐसी ओछी हरकत क्यों की ? कुछ कड़ी आवाज में सरपंच साहब बोले ।
सिर झुकाए रघ्घू खड़ा होकर बोला – साहब !मुझसे बड़ी भूल हो गई ,पसर चराकर आने के बाद मैं दरवाजे के बरामदे में सो गया कुछ देर बाद वह आकर मेरे बगल में सो गई मैंने उसे अपनी पत्नी समझ कर भूल कर बैठा अनजाने में यह भूल हुई साहब , यही मेरी गलती है अब आप लोग जो इंसाफ करें…..।
संध्या की बूढ़ी सास हाथ जोड़कर बोली – नहीं सरपंच साहब ,यह झूठ बोल रहा है ,मेरी बहू ऐसी नहीं है इससे पहले तो कभी कोई गलती नहीं की है उसने । सच तो यह है साहब कि जब इसने अपनी घरवाली का नसबंदी कराया तो उसकी देखभाल के लिए मेरी बहू को साथ ले गया था । इसकी बीवी को होश आने के बाद जब रात को मेरी बहू घर आ रही थी तब रास्ते में इस दरिंदे ने जोर जबरदस्ती उसके साथ मुंह काला किया …।
सरपंच साहब डांटते हुए बोले – क्या रघ्घू यह सच है ?
रघ्घू हाथ जोड़कर बोला – नहीं साहब ,यह बिल्कुल झूठ है । उस रात तो मैं घर आया हीं नहीं था, मैं तो दूसरे दिन पत्नी को साथ लेकर हीं घर लौटा था …।
क्यों झूठ बोल रहा है पापी ? एक तो ऐसा घोर पाप किया है ऊपर से इतना झूठ बोल रहा है ,अरे भगवान से तो डर उसकी लाठी पड़ेगी तो कोई बचाने नहीं आएगा । आप इसकी बातों में ना आए सरपंच साहब ! यह बिल्कुल झूठ बोल रहा है ।जरा आप हीं सोचिए मिडिल स्कूल गांव से दो किलोमीटर दूर है । कोई औरत दस बजे रात अकेली कैसे आ सकती है? संध्या की सास गुहार लगाती हुई बोली ।
जमींदार साहब बोले – सरपंच साहब ! दोनों पक्षों की बात सुन हीं लिए हैं ,क्या झूठ क्या सच ये तो भगवान हीं जाने अब जो फैसला करना है कर हीं दीजिए ..।
सरपंच साहब बोले ,मेरे विचार से संध्या बहू को भी बुला कर कुछ पूछताछ कर लिया जाय आमने – सामने होने पर देखें क्या सच निकलता है..।
नाक – मुंह सिकुड़ कर श्रीमान जी बोले- क्या जरूरी है, चोर को पूछ कर कहीं सजा दी जाती है ?
नहीं श्रीमान जी ,मुजरिम की उपस्थिति भी जरूरी है । सरपंच साहब ने सफाई दी…।
ठीक है बुलाया जाय, श्रीमान जी धीरे से बोले ।
ऊंटनी की तरह झुकी कमर बाली संध्या की बूढ़ी सास लाठी टेकती हुई आंगन की ओर चल दी ।
संध्या सास की पैर पर गिर कर बोली – नहीं अम्मा, मुझे वहां मत ले चलो ,सरपंच साहब से कहना पंच परमेश्वर होता है उनका जो भी आदेश होगा उसे मैं शिरोधार्य कर लूंगी।
बुढ़िया लौटकर आ गई । बहू ने जो कहा सब सरपंच साहब को सुना दी ।
श्रीमान जी व्यंग भरे लहजे में बोले – क्यों सरपंच साहब मैं पहले हीं कहा था ना ? ऐसी औरत बड़ी ढीठ होती है ।
सरपंच साहब कुछ गंभीर होते हुए बोले – नहीं नहीं ऐसी बात नहीं है, बेचारी शर्म से नहीं आई , वस्तुतः मर्दों के बीच बहू बेटियां आने में शर्माती हैं ।
श्रीमान साहब कुछ उत्तेजित होकर बोले- और पाप करने में नहीं शर्माती…, कीजिए सरपंच साहब जो फैसला करना है कीजिए ,संध्या वंदन सब बांकी है ।इन कुकर्मियों के कुकर्म में हम भले लोग नाहक हीं घसीटे जाते हैं । फिर सरपंच साहब और जमींदार दोनों एकांत में जाकर कुछ गुफ्तगू करने के बाद फैसला सुनाते हुए बोले- रघ्घू जो भी हो ,पाप तो तुमने किया है अब इस पाप को मिटाने में जो भी खर्च होगा वह तुमको बहन करना होगा ।
रघ्घू कुछ नहीं बोला । अब फैसला दूसरे पक्ष को सुनाना था । सरपंच साहब जमींदार से बोले- श्रीमान जी ! मामला आपके हीं सगे संबंधियों का है इधर का फैसला आप हीं सुना दीजिए..।
जमींदार साहब खड़े होकर बोले- सुनो भाई ! माना कि गलती दोनों की है पर मर्द तो भौरा होता है, एक विधवा स्त्री को समाज में कैसे रहना चाहिए यह आप सब जानते हीं हैं , संध्या ना सिर्फ समाज को बदनाम किया है बल्कि वैधव्य धर्म को तार-तार कर दिया है , इसलिए यह समाज में रहने लायक नहीं है । रघुवा से पैसा लेकर इसके पेट में पल रहे पाप को मिटाकर गांव से बाहर भेज दें, ऐसी औरत गांव में रह गई तो गांव घर की बहू बेटियां बिगड़ सकती है । यही पंचों का फैसला है ।
पंच परमेश्वर का फैसला सब सुन चुके थे ,पंचों में से कोई कुछ नहीं बोला । पुरुष प्रधान समाज के ठेकेदारों ने हां में हां मिला दिया परंतु संध्या की बूढ़ी सास फैसला सुनकर दंग रह गई । रोती गिड़गिड़ाती हुई बोली – सरपंच साहब ! मेरा बूढ़ा साल भर से बिस्तर पर पड़ा है ,मेरी हालत भी अच्छी नहीं है ऐसे में बिचारी बहू हीं तो हमारा सहारा है यदि गांव से चली गई तो हम जीते जी मर जाएंगे , इस बदनसीब को गांव निकाल की सजा मत दीजिए रहम कीजिए..।
सरपंच साहब कुछ बोलते उससे पहले हीं जमींदार दांत पीसकर बोले – यही बुढ़िया सब आफत का जड़ है ,बहू को घर घर घूमने का छूट दे रखी है ,अब बचाने का गुहार लगाती है इसे गांव में रखकर गांव की बहू बेटियों को उदंड होने दें क्या ? तुम्हारे और भी तो बहू बेटे हैं वे देखभाल करेंगे फिर हम लोग भी तो गांव में हीं रहते हैं.…।
बेचारी बुढ़िया याचना भरी दृष्टि से सरपंच की ओर देखती रही शायद उसे दया आ जाए और बहू को छोटी मोटी सजा देकर माफ कर दे परंतु ऐसा नहीं हुआ सरपंच साहब बिना कुछ बोले हीं जमींदार के साथ चल दिए । एक-एक कर सभी पंच लोग चले गए । बेचारी बुढ़िया लाठी टेकती हुई किसी प्रकार घर आकर कटे पेड़ की तरह गिर पड़ी ।
तन पर सफेद साड़ी ,कांख में दबी एक छोटी सी पोटली लिए गांव से बाहर निकलती हुई संध्या चाची ऐसी लग रही थी जैसे विसर्जन के बाद मूर्ति स्वयं अपने पैरों से चलकर जल समाधि के लिए जा रही हो ,कौन ऐसा वज्र ह्रदय होगा जो इस दृश्य को देखकर दो बूंद आंसू ना गिराए हों । किसी ने नहीं सोचा कि कहां जाएगी बेचारी ,जो अपनों के बीच अपने हीं घर में सुरक्षित नहीं रह पायी वह भला इस धूल धूसरित दुनियां में अपनी आबरू की रक्षा कैसे कर पाएगी? काश ! गांव वाले यह समझ पाते कि-
” जो तुलसी आंगन की पीड़ पर ना पूजी गई हो वह भला श्मशान घाट में मुर्दों के चबूतरों पर कैसे पूजी जा सकती है ?”
जिंदगी जब अबूझ पहेली थी ,तब नौ साल की बच्ची को दुनियादारी की समझ कहां थी । छोटी सी उम्र में गांव में ब्याह कर आई, बचपन भी यहीं बीता जवानी भी यहीं बीती आज अपने सफेद आंचल में एक काला दाग का धब्बा लिए लड़खड़ाते कदमों से गांव को पार कर किसी अनजान रास्ते की ओर बढ़ने लगी। मेरे घर के सामने आकर रुक गई । मेरी मां सड़क के किनारे बैठकर चिपडी पाथ रही थी । चाची को देखते हीं उसकी आंखें भर आई ,कंठ अवरुद्ध हो गया उसके सर पर हाथ रखकर बोली- जा छोटी जा, इस निर्लज्ज गांव में रखा हीं क्या है ,पर जहां भी रहेगी अपनी आबरू को बचा कर रखना दोबारा पैर फिसलने मत देना नहीं तो यह समाज कहीं पीछा नहीं छोड़ेगा जीते जी निकल जाएगा । वह मां के गले से लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगी । मैं मां का आंचल पकड़ कर खड़ा सब देख रहा था तब मुझे कहां पता था कि समाज के लोगों ने इस मूर्ति का विसर्जन कर “स्वस्थानम् गच्छ ” कह दिया है ।उसने मुझे गोद में उठाकर छाती से लगाती हुई कई बार चुंबन किया। फिर वह धीरे-धीरे जाने लगी ।मां खड़ी-खड़ी तब तक देखती रही जब तक कि वह आंखों से ओझल नहीं हो गई । मैं मां को झकझोरता हुआ बोला – मां चाची कहां जा रही है ? मां आंंसू पोछती हुई बोली पता नहीं बेटा उसका भाग्य उसे कहां ले जाएगा ।
बीस साल हो गए इस घटना को । उस समय मेरी नन्ही आंखें जो कुछ भी देखी उसे मैं कभी भुला नहीं पाया, ज्यों ज्यों मैं बड़ा होता गया त्यों त्यों मेरी स्मृति गहराती गई ।आखिर जो कुछ भी हुआ बहुत बड़ा अन्याय हुआ । इसी गांव में ऐसे कितने औरत मर्द हैं जिनके दामन पर अनेकों दाग धब्बे लगे हैं फिर भी गांव में सर उठाकर शान से जीते हैं और एक बेचारी चाची…..। क्या वह एक बेसहारा नि:संतान विधवा थी इसलिए? किसी सुहागन स्त्री जानबूझकर भी यदि ऐसा कुकृत्य करें क्या तब भी समाज यही सजा दे सकता है?…………? यह समाज के लिए एक प्रश्नचिन्ह छोड़ रहा हूं ।
अचानक घंटी की आवाज से मेरी तंद्रा भंग ह़ुई,अतीत की गर्त से निकलकर वर्तमान की ओर झांका तो देखा कि संध्या चाची की साधना समाप्त हो चुकी थी ।भगवान सूर्यदेव भी पूर्व से पश्चिम की ओर जा चुके थे। मंदिर का प्रसाद पाने के लिए बच्चों की टोली उमड़ पड़ी । सब को प्रसाद देकर जब वह मंदिर से बाहर निकली तो मैंने पैर छूकर प्रणाम किया ।आयुष्मान भव, कहकर वह मेरी तरफ गौर से देखती हुई पहचानने की कोशिश करने लगी । मैं तो जानता था कि वह मुझे नहीं पहचान पाएगी यदि उस युवक ने मुझे नहीं बताया होता तो मैं भी कहां पहचान पाता । कुछ देर तक गौर से मुझे देखने के बाद बोली – बेटा कौन हो तुम ,क्या नाम है कोई काम है मुझसे क्या?
मैं अपना नाम बताते हुए कहा – चाची आपने मुझे पहचाना नहीं मैं अपने गांव का आनंद हूं। अपने गांव का नाम सुनते ही पहले तो वह सकपका गई , कुछ देर तक स्मृति पटल को टटोलती रही फिर ऐसा लगा जैसे किसी मां को अपना बिछड़ा हुआ बेटा मिला गया हो । ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप से मुरझाई हुई लता में जैसे जान आ गई , वह चहक कर बोली क्या मझली बहीनदाय का बेटा?
मेरा हां कहते हीं मुझे ऐसा लगा जैसे बरसों तक मरुस्थल में चलने वाले किसी चीर पिपासा व्यक्ति को समुद्र मिल गया हो। मन में प्रसन्नता ह्रदय में विदिर्णता और नयन से धाराप्रवाह अश्रु निकलता देख मैं विचलित हो गया, मैं स्वयं को नहीं संभाल पा रहा था फिर उसे क्या सांत्वना देता । दो मिनट तक हम दोनों यूं ही खड़े खड़े एक दूसरे को निहारते रहे, मैं क्या कहता समझ में नहीं आ रहा था अन्त में उसी ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, बेटा ! गांव घर का हाल खबर कैसा है ,सब ठीक तो है ना ? मां बाबूजी कैसे हैं ,और सब लोग कैसे हैं , जब से मैं आई तब से अपने गांव का एक पंछी तक नहीं मिला आज तुम को देखकर आंख जुडा गई । तुम्हारी मां कैसी है, मेरा राजू कैसा है गांव के और सब लोग कैसे हैं? उनकी आंखों से बहती अश्रु धारा मानो सब जानने के लिए व्याकुल हो रही थी।
वाह री माया !जो लोग ठोकर मार कर निकाल दिया उसके प्रति आज भी इनके मन में इतना प्रेम और अपनापन भरा है । मैं किस मुंह से कहता कि जिनके प्रति आपके मन में इतना प्रेम भाव है उन्हें तो सपने में भी कभी आपकी याद नहीं आती। एक-एक कर सब का समाचार मैं सुनाने लगा। कुछ खट्टे कुछ मीठे समाचार सुनते सुनते भाव विभोर हो गई अंत में उसने फिर अपने सास ससुर के बारे में पूछा तो मैं अवाक रह गया। मैं क्या बताता उन्हें गुजरे तो कई साल हो गए और इसे पता तक नहीं, मैं कैसे बताता कि वेअब इस दुनियां में नहीं रहे पर हकीकत को मैं छुपा भी तो नहीं सकता बड़ी सहजता से मैंने कहा- चाची , उन्हें परलोक सिधारे तो कई साल हो गए ।
मेरे मुंह से परलोक सिधारने की बात सुनकर वह दंग रह गई । कुछ हीं पल पहले थमी आंसुओं की धारा पुनः फूट पड़ी। दुख इस बात से नहीं हुआ कि उनके सास ससुर अब नहीं रहे , मरना जीना तो प्रकृति का नियम है जो आया सो जाएगा बल्कि दुख इस बात से हुआ कि सास ससुर के मरने पर भी उसे खबर नहीं दिया गया । मन के किसी कोने में आशा की एक लौ भुकभुका रही थी वो भी बुझ गई। आंचल से आंसू पोछती हुई बोली- बौआ, कुल खानदानी रिश्ता भी नहीं रहा, मां बाबूजी गुजर गए और मैं छौर कर्म तक नहीं कर पाई, देव पितर का अधिकार भी मेरा नहीं रहा?
मुझसे झूठ नहीं बोला गया , मैंने कहा – चाची , जिन्हें आप अपना मानती हैं उन्हें तो आपकी याद तक नहीं, फिर भी यदि आपको जाने की इच्छा है तो मैं ले जाऊंगा ,अपने साथ अपने यहां , मेरे घर रहिएगा, जब तक आपकी इच्छा हो ,सबसे मिलन जुलन हो जाए फिर जब आप कहेंगे मैं यहां छोड़ दूंगा ।
आह भर कर बोली – नहीं बौआ ,जब सारा रिश्ता टूट हीं गया तो फिर किस रिश्ते की डोर पकड़ कर जाउं, मैं तो स्वप्न में जी रही थी आज वो भी टूट गया… कहते-कहते फफक फफक कर रोने लगी। फिर बोली बेटा ,अपनी मां से मेरा प्रणाम कहना और कहना कि मैं दुखी नहीं हूं ,यही मंदिर मेरा घर है और ये राधा कृष्ण मेरा परिवार है ।
अब तक अंधेरा घना हो गया था । मैंने पैर छूकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विदा मांगा। वह बिना कुछ बोले चुपचाप खड़ी रही।
काश ! मैं अपना रूढ़ीवादी, पुरुष प्रधान समाज को समझा पाता कि जिस देवी को उसने ठोकर मार कर निकाल दिया वह तो तभी मर गई थी जब एक जीती जागती लाश के रूप में ससुराल से निकाल दी गई थी अब जो है वह त्याग तपस्या और करुणा की मूर्ति जिसके मन में आज भी अपने परिजनों के प्रति अपार प्रेम उमड़ रहा है ।
मैं जाते-जाते मुड़ कर देखा वह वहीं खड़ी अपलक दृष्टि से मेरी ओर देख रही थी उसका सफेद आंचल हवा में लहरा रहा था जिसमें कहीं कोई दाग नहीं, त्याग , तपस्या भक्ति, दया, करुणा और प्रेम का पराग फैल रहा था …..।

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रचनाकार

Author

  • अरुण आनंद

    कुर्साकांटा, अररिया, बिहार. Copyright@अरुण आनंद/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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