सन्ध्या-योग

योग एक प्राचीन भारतीय विद्या है। इसका मूल स्रोत वेदों में प्राप्त होता है, यथा- योगेयोगे तवस्तरं[१], स धीनां योगमिन्वति[२] एवं युज्यमानो वैश्वदेवो युक्तः प्रजापतिर्विमुक्तः सर्वम्[३] इत्यादि । वेदों में निहित योग सम्बन्धी रहस्य-सूत्रों के आधार पर परवर्ती काल में औपनिषदिक एवं दार्शनिक ग्रन्थों का प्रणयन हुआ । वैदिक परम्परा से इतर दार्शनिक एवं धार्मिक साहित्य में भी योग विषयक तत्त्वों का वर्णन विशद रूप में मिलता है। परिणामतः आज योग विषयक अनेक साधना पद्धतियाँ संसार में प्रचलित हो गयी हैं जो अलग-अलग धार्मिक मत / पंथों की पहचान भी बन गयी हैं, यथा- ज्ञानयोग, कर्मयोग, उपासनायोग, तन्त्रयोग, हठयोग, सहजयोग, सन्ध्यायोग इत्यादि । प्रस्तुत शोधालेख के अन्तर्गत इनमें से सन्ध्यायोग विशेषरूप से विचारणीय है।

सन्ध्या का अर्थ –

सन्ध्या शब्द का सामान्य अर्थ मिलाप, जोड़, प्रातः एवं सायंकाल की सन्धिवेला तथा प्रातः एवं सांयकाल की सन्धिवेला में की जाने वाली परमात्मा की प्रार्थना, उपासना, ध्यान एवं चिन्तन आदि माना जाता है।[४]

व्याकरणानुसार ‘सन्ध्या’ शब्द की व्युत्पत्ति सम् उपसर्गपूर्वक ध्यै चिन्तायाम्[५] धातु से अधिकरणकारक में आतश्चोपसर्गे[६] – इस सूत्र से अप्रत्यय स्त्रीलिंग में टाप् होकर सिद्ध होती है। इसका अर्थ यह है कि उपासक लोग जिस क्रिया में परब्रह्म परमात्मा का ध्यान / चिन्तन करते हैं उस उपासनारूप क्रिया को सन्ध्या कहते हैं।[७] महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी सन्ध्या शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है –

सन्ध्यायन्ति सन्ध्यायते वा परम्ब्रह्म यस्यां सा सन्ध्या ।[८]

अर्थात् जिसमें परब्रह्म परमेश्वर का सम्यक्रूपेण ध्यान किया जाता है वह सन्ध्या कहलाती है।

सन्ध्या के उपर्युक्त अर्थों पर सम्यक् रूप से विचार करने पर विदित होता है कि सन्ध्या अपने आप में एक सर्वांगपूर्ण योगपद्धति है क्योंकि परमेश्वर का ध्यान, चिन्तन, मनन, उपासना एवं साक्षात्कार इत्यादि वस्तुतः योगाभ्यास के अंगरूप ही हैं। अतएव प्रस्तुत शीर्षकान्तर्गत सन्ध्या के ऊपर योगविद्या के आलोक में विचार किया जा रहा है।

सन्ध्यायोग का स्वरूप-

सन्ध्या के निम्नलिखित अंग हैं – शिखा बन्धन, आचमन, अंगस्पर्श, मार्जन, प्राणायाम, अघमर्षण, मनसा परिक्रमा, उपस्थान एवं समर्पण। सन्ध्या के उपर्युक्त अंगों पर योगविद्यापरक दृष्टिकोण से विचार करने पर इनमें योग के समस्त अंगों का अद्भुत समन्वय दृष्टिगोचर होता है। योगविद्या के क्षेत्र में महर्षि पतंजलि प्रतिपादित अष्टांगयोग पद्धति सर्वाधिक प्रसिद्ध मानी जाती है। पतंजलिप्रोक्त योग के आठ अंग है – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि |[९] ये सभी अंग सन्ध्या के अन्तर्गत सन्निहित दिखलाई पड़ते हैं।

सर्वप्रथम जब व्यक्ति सन्ध्योपासन की क्रिया प्रारम्भ करता है तो वह सुखासन, पद्मासन इत्यादि किसी आसन में स्थिर होकर ही क्रियाविधि प्रारम्भ करता है। इस प्रकार आसन नामक योगांग सन्ध्या में समाविष्ट हो जाता है । जैसा कि मनुस्मृति में भी कहा गया है कि –

पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठेत्सावित्रीमार्कदर्शनात्। पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्षविभावनात्॥[१०]

अर्थात् प्रातःकाल की सन्ध्या में आसन में स्थित होकर सूर्योदय पर्यन्त सावित्री का जप करें तथा सायंकाल आसन में बैठकर तारों के उदित होने तक सन्ध्योपासन कर्म करें।

पतंजलि प्रतिपादित यम एवं नियमों का विचारपूर्वक अध्ययन करने पर विदित होता है कि यमों में अहिंसा नामक यमांग तथा नियमों में शौच नामक नियमांग ही मुख्य है। अन्य समस्त यम एवं नियम इन्हीं की पुष्टि में साधनरूप हैं। इतना ही नहीं प्रत्युत डॉ विजयपाल शास्त्री ने तो समस्त यम-नियमों में अहिंसा को ही प्रधान माना है। उनका कथन है – अहिंसा के आगे जितने भी यम और नियम हैं वे सब अहिंसामूलक ही हैं । अर्थात् वे सब अहिंसा के भाव को पुष्ट करने के लिये ही हैं। जैसे-जैसे सत्यादि यमों का तथा शौचादि नियमों का अनुष्ठान किया जाता है वैसे-वैसे अहिंसा निर्मल और पुष्ट होती जाती है ।[११]

परन्तु यदि नियमों पर अलग से विचार किया जाय तो शौच, जो कि शारीरिक आदि बाह्यशुद्धि एवं मानसिक, बौद्ध चैतसिक एवं आत्मिक आदि आभ्यन्तर शुद्धिरूप है, अन्य समस्त नियमांगों का आधार प्रतीत होता है । सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान के अनुष्ठान से बाह्य एवं आन्तरिक शुद्धि पुष्ट होती है। तप के विषय में तो योगसूत्र में स्पष्ट ही उल्लेख मिलता है –

कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः । [१२]

अर्थात् तप के अनुष्ठान से शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि तथा अशुद्धियों का क्षय होता है। इस प्रकार यमों में अहिंसा तथा नियमों में शौच ही प्रधान हैं तथा अन्य समस्त यम एवं नियम इन्हीं में अन्तर्निहित माने जा सकते हैं।

सन्ध्या की क्रियाविधि में आचमन, अंगस्पर्श एवं मार्जन की विधियों द्वारा शुद्धिकरण एवं आलस्यादि दोषों की निवृत्ति का निर्देश किया गया है। यह शौच नामक नियम के अन्तर्गत आ जाता है । सन्ध्या के अन्तर्गत शुद्धि के विषय में महर्षि दयानन्द का कथन है –रात और दिन के संयोग समय दोनों सन्ध्याओं में सब मनुष्यों को परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना करनी चाहिये। पहले बाह्य- लादि से शरीर की शुद्धि और रागद्वेष आदि के त्याग से भीतर की शुद्धि करनी चाहिये …. परन्तु शरीर शुद्धि की अपेक्षा अन्त:करण की शुद्धि सबको अवश्य करनी चाहिये, क्योंकि वही सर्वोत्तम और परमेश्वर प्राप्ति का एक साधन है ।[१३]

अहिंसा का उल्लेख सन्ध्या के मनसापरिक्रमा विधि के मन्त्रों में प्राप्त होता है । मन्त्र में कहा गया है- योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म: ॥[१४] इस मन्त्रांश का अर्थ महर्षि दयानन्द ने इस प्रकार किया है – जो प्राणी अज्ञान से हमारा द्वेष करता है और अज्ञान से जिस धार्मिक पुरुष का तथा पापी पुरुष का हम लोग द्वेष करते हैं उन सबकी बुराई को उन बाणरूप किरणमुखरूप के बीच में दध कर देते हैं, कि जिससे किसी से हम लोग वैर न करें और कोई भी प्राणी हमसे वैर न करे, किन्तु हम लोग परस्पर मित्रभाव से वर्ते ।[१५]

यम, नियम एवं आसन के पश्चात् अगले योगांग प्राणायाम का तो सन्ध्या की विधि में स्पष्टतया निर्देश है। सन्ध्या के अन्तर्गत निम्नलिखित मन्त्र के जपपूर्वक कम से कम तीन एवं अधिक से अधिक इक्कीस प्राणायाम करने का निर्देश किया गया है। [१६]

ओं भूः । ओं भुवः । ओं स्वः । ओं महः । ओं जनः । ओं तपः। ओं सत्यम् ॥[१७]

प्रत्याहार का समावेश सन्ध्या की अघमर्षण नामक विधि के अन्तर्गत दिखलाई पड़ता है। अपनी इन्द्रियों को सब विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी कर लेना तथा अन्त:करण को समस्त पापकर्मों से पराङ्मुख कर लेना प्रत्याहार कहलाता है । अघमर्षण के मन्त्रों में परमेश्वर के सर्वशक्तिमत्व, सर्वज्ञत्व एवं सामर्थ्य इत्यादि का प्रतिपादन किया गया है। इन मन्त्रों का अर्थ करने के अनन्तर महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि – ऐसा निश्चित जान के ईश्वर से भय करके, सब मनुष्यों को उचित है कि मन, कर्म और वचन से पापकर्मों को कभी न करें, इसी का नाम अघमर्षण है, अर्थात् ईश्वर सबके अन्तःकरण के कर्मों को देख रहा है, इससे पापकर्मों का आचरण मनुष्य लोग सर्वथा छोड़ देवें ।[१८]

प्रत्याहार के पश्चात् अन्तरंग साधना का क्रम प्रारम्भ होता है। मनसा परिक्रमा के मन्त्रों पर विचार करते समय सन्ध्यायोग का साधक अपने सामने, दायें, बाएं, पीछे, नीचे तथा ऊपर समस्त दिशाओं में परमात्मा के स्वरूप का दिग्दर्शन करता है। इसे ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था अथवा धारणा की स्थिति कहा जा सकता है।

समस्त दिशाओं में धारणा करने के पश्चात् साधक उपस्थान मन्त्रों के माध्यम से ईश्वर के स्वरूप में मग्न हो जाता है। ‘उपस्थान’ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है – उप + स्थान । ‘उप’ का अर्थ है समीप तथा ‘स्थान’ शब्द में ष्ठा गतिनिवृतौ’[१९] धातु है जिसका अर्थ है ‘गति की निवृत्ति’। इस प्रकार उपस्थान में मन एवं इन्द्रियादि की चंचलतारूप गति की निवृत्ति होकर आत्मा परमेश्वर में स्थिरता को प्राप्त करता है। इसे ध्यान की परिपक्व अवस्था कहा जा सकता है। ध्यान की अवस्था में आत्मा परमात्मा से संयोग स्थापित कर लेता है। उपस्थान-मन्त्रों का अर्थ करने के पश्चात् महर्षि दयानन्द ने यही बात कही है – इसलिए प्रेम में अत्यन्त मग्न होके अपने आत्मा और मन को परमेश्वर में जोड़ के इन मन्त्रों से स्तुति और प्रार्थना सदा करते रहें ।”[२०]

उपर्युक्त ध्यान की अवस्था में मग्न हुआ साधक परमेश्वर की शरण में समर्पण करता है कि हे दयारूप निधि से परिपूर्ण ईश्वर ! आपकी कृपा से ही मैं जप एवं उपासनादि कर्मों में प्रवृत्त हो रहा हूँ। जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की सिद्धि हमें शीघ्र ही प्राप्त होवें ।

इस प्रकार पूर्ण समर्पित भाव से ईश्वर का ध्यान एवं चिन्तन करते रहने पर साधक को योग के अन्तिम अंग समाधि अवस्था की प्राप्ति हो जाती है। वस्तुतः समाधि योग का अंग न होकर उसका फल है। समाधि तो साध्य है और यम- नियमादि योगांग उसके साधन। साधक के प्रयत्न की गति साधनों में ही हुआ करती है साध्य में नहीं। साधनों के अनुष्ठान के फलस्वरूप अभ्यास के परिपक्व हो जाने पर साध्य की उपलब्धि तो अनायास ही हो जाया करती हैं।

संक्षेप में यही सन्ध्यायोग का स्वरूप है जिसमें योग के समस्त अंगों का समावेश स्पष्ट रूप से दिखलायी पड़ता है । सन्ध्यायोग का फल बताते हुए मनुस्मृतिकार ने कहा है कि –

पूर्वं संध्यां जपंस्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति । पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम् ॥[२१]

अर्थात् प्रात:काल सन्ध्या में बैठकर जप करने से साधक रात्रिकाल में किये गये पापकर्मों को नष्ट कर देता है तथा सायंकाल की सन्ध्या से दिन के पापकर्मों को नष्ट कर देता है। एक अन्य स्थल पर मनुस्मृति में कहा गया है कि –

ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः । प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च बह्मवर्चसमेव च ॥[२२]

अर्थात् ऋषियों ने दीर्घकालपर्यन्त सन्ध्या करते रहने से दीर्घ आयु, बुद्धि, यश, कीर्ति तथा ब्रह्मतेज को भी प्राप्त कर लिया था।


[१] ऋग्वेद- १/३०/७

[२] ऋग्वेद- १/१८/७

[३] अथर्ववेद – ९/७/२४

[४] वामन शिवराम आप्टेः संस्कृत – हिन्दी – कोश, द्वितीय सं. १९९३, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, पृष्ठ १०६९

[५] धातुपाठ, भ्वादिगण ६४९

[६] अष्टाध्यायी ३/३/१०६

[७] आचार्य विश्वश्रवाः, सन्ध्यापद्धतिमीमांसा, तृतीय सं., श्री घूड़मल प्रहलाद कुमार आर्य धर्मार्थ ट्रस्ट, हिण्डौन सिटी राज. ३२२२३०, पृष्ठ २७

[८] महर्षि दयानन्द सरस्वती: पंचमहायज्ञविधि, सं. संवत् १९६६,वैदिक यन्त्रालय, अजमेर,पृष्ठ १

[९] योगसूत्र – २/२९

[१०] मनुस्मृति – २/२०१

[११]  डा० विजयपाल शास्त्री, योग विज्ञान प्रदीपिका, उपर्युक्त, पृष्ठ १३२

[१२]  योगसूत्र – २/४३

[१३] महर्षि दयानन्द सरस्वती: पंचमहायज्ञविधि, सं.संवत् १९६६, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर,पृष्ठ २

[१४] महर्षि दयानन्द सरस्वती: पंचमहायज्ञविधि, सं. संवत् १९६६, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर, पृष्ठ १८

[१५]  महर्षि दयानन्द सरस्वतीः पंचमहायज्ञविधि, सं. संवत् १९६६, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर, पृष्ठ २१

[१६]  महर्षि दयानन्द सरस्वती: पंचमहायज्ञविधि, सं. संवत् १९६६, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर, पृष्ठ ८

[१७] तैत्तिरीय आरण्यक १०/२७

[१८] महर्षि दयानन्द सरस्वती: पंचमहायज्ञविधि, सं. संवत् १९६६, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर, पृष्ठ १५

[१९] धातुपाठ, भ्वादिगण ६६३

[२०] महर्षि दयानन्द सरस्वती: पंचमहायज्ञविधि, सं. संवत् १९६६, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर, पृष्ठ ३२

[२१] मनुस्मृति – २ / १०२

[२२] मनुस्मृति – ४/९४

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रचनाकार

Author

  • डॉ० गुलाब सिंह

    सहायक प्राध्यापक-दर्शनशास्त्र, श्री राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय सीतामढ़ी, बिहार. स्थाई पता: ग्राम+पो०-भौराकलाँ,जनपद-मुज़फ्फरनगर,उत्तर प्रदेश,पिन कोड-251319./ ©डॉ० गुलाब सिंह

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