सच को जब हमने समझा

सच को जब हमने समझा तब झूठा भी हमने समझा
देख पराए धन को मैंने कभी नहीं अपना समझा
जिसको जैसा देखा मैंने उसको मैंने वैसा समझा
दिमाग लगाने वालों को तो मैंने हरदम बौना समझा
भौतिकता की दौड़ में अब तो सबको तेज दौड़ता समझा
समझा नहीं ओ रिश्तेदारी जिसने सब कुछ पैसा समझा
मोती उसकी झील सी आंखें हरदम मैंने दरिया समझा
समझ नहीं आया मुझको क्यों झरने को दरिया समझा
मुझे शौक है चुप रहने की सब ने मुझ को गूंगा समझा
जिसको जान से ज्यादा माना उसने मुझसे खतरा समझा
जो भी चीज मिली जीवन मे उसको मैंने अपना समझा
दूर ना हो अब जीवन से वो जिसने हमको अपना समझा
जितना मिला मुझे जीवन में उतने में खुश रहना समझा
लूट के भर ले धन दौलत जो उसको तो मैं पशुता समझा

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रचनाकार

Author

  • गिरिराज पांडे

    गिरिराज पांडे पुत्र श्री केशव दत्त पांडे एवं स्वर्गीय श्रीमती निर्मला पांडे ग्राम वीर मऊ पोस्ट पाइक नगर जिला प्रतापगढ़ जन्म तिथि 31 मई 1977 योग्यता परास्नातक हिंदी साहित्य एमडीपीजी कॉलेज प्रतापगढ़ प्राथमिक शिक्षा गांव के ही कालूराम इंटर कॉलेज शीतला गंज से ग्रहण की परास्नातक करने के बाद गांव में ही पिता जी की सेवा करते हुए पत्नी अनुपमा पुत्री सौम्या पुत्र सास्वत के साथ सुख पूर्वक जीवन यापन करते हुए व्यवसाय कर रहे हैं Copyright@गिरिराज पांडे/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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