कट-कट दन्त करें झर-झर कुहासा गिरे, कोमल बदन शीत थर थर कँपावत है।
खर पतवार सब बीनि के एकत्र करें, सूखी घास ठण्डी में सब जन जलावत है।
गेहूं का मामा चटरी मटरी अकरी वन-पालक, बथुआ दुर्वा आदि बिन बोये उगि आवत है।
घरनी घूँघट पट सिर से उघारि करि, कहैं शेष चाय निज पति के पियावत है।।
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चारिउ ओर गेहूँ जौ सरसों मटर अलसी, लहरि लहरि सबही के मन को लुभावत है।
छम छम छम नुपूर छमकावति गजगामिनि अति, सोलहों श्रृंगार बहुविधि से सजावत है।
जिसके घर प्रियतम परदेश से हैं आइ गये, ओढ़ि के रजाई आनन्द उठावत हैं।
झमकावति झुमकि से नव रस गाइ गाइ, कहैं शेष मालकौंस कण पसरावत है।।
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टीस उठे बार बार हिया में वियोगिनी के, पूस माघ के जाड़ हाड़ तक हिलावत है।
ठहरे परदेश घर-द्वार सब बिसरि गए, निष्ठुर भये कंत नेह तनिक न लगावत है।
डर लागत दिन में सघन धुंध छायि रहे, पवन रुप धरि हिम
बहुत जड़वावत है।
ढांढ़स बंधे तो कैसे धैर्य दीप बुझि रहे, कहें शेष प्रिय चलभाष न मिलावत है।।