शब्द

काॅफीघरों-चायखानों

बैठकों , भाषण-मंचों के वृत्त से

उछाले,पटके जाते हुए

सरकाये , चबाये जाते हुए रात-दिन

नीमजान हो गये हैं शब्द

पीत,पस्त, खिन्न!

शिद्दत से तलाश रहे हैं शब्द

संवेदना का सरोवर

जहाँ स्नात हो

खिलें,हरिआयें

हों पुनर्नव , कृतार्थ

घाघ शब्द-साहूकारों की मंडी से

मुक्त होने को व्याकुल शब्द

भाग जाना चाहते हैं

खेतों-खलिहानों,आंगन-चौपालों में

शामिल हो सकें जहाँ

हलवाहों की चैती,

धान रोपती स्त्रियों के सोहर में

माँओं की लोरियों,बड़े-बूढ़ों की प्रभातियों में

कामगारों के ‘हो-हैया ‘ में

शरीक होना चाहते हैं शब्द

परोपदेशकों के जिह्वा-जाल से

छूट कर

उनके आचरण में

उतर जाना चाहते हैं शब्द

अब अपना अर्थ

पाना चाहते हैं शब्द ।

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रचनाकार

Author

  • डॉ रवीन्द्र उपाध्याय

    प्राचार्य (से.नि.),हिन्दी विभाग,बी.आर.ए.बिहार विश्वविद्यालय,मुजफ्फरपुर copyright@डॉ रवीन्द्र उपाध्याय इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है| इन रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है|

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