कभी भूमि फट रही है,कभी धरती हिल रही है
देखो अब विनाश की,झांकी भी दिख रही है।
भूस्खलन, तूफान,बाढ़ से,सब त्राहि माम कर रहे है,
प्रकृति विकाश की विनाश से,पटकथा लिख रही है।।
जल स्तर गिरता जा रहा है,पर कोई परवाह नही है,
प्रदूषण के साए में अब,हर एक सांस चल रही है ।
अब पृथ्वी भी क्या करे,कब तक वार सहे खुद पर,
खनिजों के खनन से,अब वो रिक्त हो रही है ।।
वनों को काटते जा रहे,बागों को उजाड़ते जा रहे है।।
नदियों को केमिकल से,अब दूषित बना रहे है ।
कैसे बचेगी मानवता,मानव के क्रूर विध्वंसों से,
सब देश अपनी अपनी,परमाणु शक्ति बढ़ा रहे है।।
बोलो कौन सा भविष्य,देंगे हम नव पीढ़ियों को,
उनकी दुश्वारियों को,हम खुद ही बढ़ा रहे हैं ।
नफरत की आंधियों से,अब बचेगा कौन बोलो,
अपने ही लोग मिलकर,अपनो को गिरा रहे हैं।।
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