विद्या और शिक्षा में मौलिक अंतर

हमारे जीवन को सरल, सहज और सफल बनाने में शिक्षा और विद्या दोनों का काफी महत्व है, लेकिन दोनों में कुछ मौलिक अंतर या भेद है। विद्या और शिक्षा दो अलग विधाएं हैं जिनको हम अक्सर एक ही समझने की भूल करते हैं। जबकि विद्या, शिक्षा का परिणाम है। शिक्षा का अर्थ है अपनी जानकारी का विस्तार करके स्वयं को लौकिक जगत की उपलब्धियों धनार्जन एवं सुख सुविधाओं के योग्य स्थापित करना जो वर्तमान समृद्धि की प्रथम प्राथमिकता है। लेकिन विद्या हमारा आत्मिक उत्थान करके हमें भोग विलास से दूर तपस्वी और परोपकारी बनाती है। शिक्षा साक्षर बनातीं है जबकि विद्या शिक्षित। शिक्षा हमें चतुराई सिखा सकती जबकि विद्या से हम सफल और लोकप्रिय जीवन जीने के लिए प्रेरित होते हैं। शिक्षा हमें सफल और सक्षम बनाती है, लेकिन विद्या हमें बुद्धि, विवेक और विद्वान बनाती है। स्पष्ट कहें तो विद्या ली जाती है और शिक्षा दी जाती है।

      भौतिक उन्नति, प्रगति, विकास और वाह्य ज्ञान का सम्बन्ध शिक्षा से है। शिक्षा अक्षर ज्ञान, पुस्तकीय ज्ञान, सूचना संग्रह, अच्छे नम्बर और डिग्रियों तक सीमित है। शिक्षा शारीरिक सुख भोगों तक सीमित है। विद्या आत्मिक उन्नति परमात्म-चिन्तन और जीवन को श्रेष्ठ एवं पवित्र बनाती है। जीवन में धार्मिकता, आधुनिकता, नैतिकता, सदाचार शिष्टाचार आदि की भावना जाग्रत करती है। विद्या सुखी निरोगी प्रसन्न जीवन की कुंजी कहलाती है तभी कहा है, ‘‘विद्वाविहीनः पशुभिः समानः’’ विद्या हीन व्यक्ति पशु के समान होता है। विद्या से ही व्यक्ति विद्वान बनता है। शिक्षा से तरह-तरह का ज्ञान तो एकत्र हो जायगा, मगर सच्चे अर्थ में आत्मज्ञानी तथा विद्वान नहीं हो सकता है।

      भारत सदा से विद्या का उपासक रहा है। विद्या से ही मनुष्य सच्चे अर्थ में मानव बनता तथा कहलाता है। शास्त्र कहते हैं- ‘‘विद्या सा या विमुक्तये’’, सच्ची विद्या वह है जो हमें वचनों, बुराईयों, दोषों एवं अवगुणों से छुड़ाए। हमारे अन्दर प्रभुता से हटकर देवत्व की भावना जाग्रत करें। जो हमें जीवन का सत्य स्वरूप और सन्मार्ग बताए। सच्ची विद्या का पढ़ना-समझना जीवन का असली स्लेबस है। आज स्कूलों, कालेजों एवं विश्वविद्यालयों में भौतिक ज्ञान व शिक्षा पर तो पूरा समय, शक्ति, धन लगाया जा रहा है। जीवन की असली आत्मपरमात्म विद्या पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। उसी का परिणाम है कि आदमी सच्चे अर्थ में इन्सान नहीं बन पा रहा है। जिसमें इन्सानियत, मनुष्योचित, गुण, कर्म, स्वभाव और आकर्षण हो।

     ‘‘विद्या धर्मेण शोभते’’ विद्या धर्म से बढ़ती, फलती-फूलती और शोभा प्राप्त होती है। विद्या से ही जीवन में आर्ट ऑफ लिविंग की कला आती है। जीवन में यदि जीवन नहीं तो चाहे कितना भी भौतिक ज्ञान, सुख-साधन, भोग पदार्थ एकत्र कर लें तब भी जीवन अपूर्ण तथा अधूरा ही रहता है। शिक्षा स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग को बढ़ाती है और विद्या स्टैंडर्ड ऑफ लाईफ को ऊंचा ले जाती है। विद्या धर्म युक्त जीवन जीते हुए धर्म अर्थ काम मोक्ष तक ले जाती है। यही जीवन का सत्य लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वर्तमान भौतिक शिक्षा में कुछ पढ़ाया और बताया नहीं जा रहा है। इसलिए वर्तमान शिक्षा विद्या से रहित अधूरी है।

        वेद का सन्देश ‘विद्या च अविद्या, च अविद्यो च’’ भौतिक ज्ञान के साथ मात्र आध्यात्म विद्या दोनों का समन्वय करके चलो तभी जीवन-जगत में सुख-शान्ति प्रसन्नता विश्वबन्धुत्व की भावना बनेगी। उपनिषद भी कहते हैं ‘विद्यया अमृतं अश्नुते’’ विद्या से अमृतत्व ;आनन्दद्ध की प्राप्ति संभव है। शिक्षा से भौतिक सुख भोग पदार्थ तो मिल जायेंगे, मगर सच्चा आत्म आनन्द नहीं मिलेगा। सच्चे आनन्द के खजाने का ताला तो आत्मविद्या की कुंजी से ही खुलेगा। जीवन जगत को जितनी भौतिक भिक्षा ;ज्ञानद्ध की जरूरत है, उतनी ही आत्म विद्या की भी आवश्यकता है। तभी वर्तमान समस्याओं, उलझनों, विवादों, दुःखों, कष्टों अशान्ति आदि का समाधान संभव है। आज शिक्षा बढ़ रही है। जीवन की असली विद्या घट रही है। भारत का जीवन-दर्शन रहा है शिक्षा-विद्या, भोग योग, भौतिकता आध्यात्मिकता, शरीर-आत्मा, प्रकृति परमात्मा आदि का सन्तुलन एवं समन्वय करके चलो। तभी जीवन-जगत सन्मार्ग की ओर प्रेरित रहेगा। भारतीय शिक्षा दर्शन में विद्यार्थी और विद्यालय बोला जाता है। जिसका सीधा सम्बन्ध विद्या के साथ है, न कि शिक्षा के साथ है। शिक्षा का सम्बन्ध इहलोक के साथ है और विद्या का सम्बन्ध इह श्रेष्ठ जीवन तथा परलोक दोनों के साथ है। विद्या का अर्थ है लोकोपयोगी ज्ञान, मुक्ति का मतलब है जीवन में सभी तरह की गुलामी से छुटकारा। यह है विद्या जो मजबूती प्रदान करती है। विद्या किसी विशेष आयु, सीमा के बंधन से मुक्त है। विद्या का जीवन पर्यन्त का साथ है। विद्या सदाचार, मानवता, कर्त्तव्यनिष्ठा, सहिष्णुता, सदवृत्ति, सेवावृत्ति, साधनावृत्ति पैदा करती है।

    वर्तमान शिक्षा साक्षरता, नौकरी, अधीनता, गुलामी, मजबूरी की मानसिकता पैदा करती है। बेकाम, बेकाबू बुद्धि और बे-अकल काम खतरनाक है। शिक्षा आज कल जिसका व्यापक विस्तार साफ-साफ नजर आ रहा है, इसके बारे में जानकारी होते हुए भी लठ्ठ लेकर लोग इसके पीछे पड़े हुए हैं। शिक्षा को प्रतिष्ठा, पद, पैसे से जोड़कर देखा जा रहा है। ज्यों ज्यों शिक्षा का विस्तार हुआ, शिक्षितों की संख्या बढ़ी त्यों त्यों लालच, लोभ, भ्रष्टाचार, शोषण, लूट, बेकारी, बेरोजगारी, मजबूरी का विस्तार होता नजर आ रहा है।स्थिति को साफ करने के लिए जैसे जैसे शिक्षण संस्थान बढ़े, पुस्तकालय बढ़े, छात्र छात्राओं, अध्यापकों की संख्या बढ़ी, तकनिकी प्रोद्योगिकी साधन बढ़े वैसे वैसे जानकारी, सूचना तो बढ़ी मगर आत्मज्ञान, संस्कार, आत्मबल कैसे हैं? बहुत ही निर्बल और कमजोर दिखाई देते हैं।

आज हर क्षेत्र में सुख-सुविधाएं बढ़ी हैं। न्यायालय, कोर्ट-कचहरी, वकील बढ़े हैं, फिर भी न्याय व्यवस्था के हालात बद से बद्तर है। अस्पताल बढ़े, डाक्टर बढ़े, दवा बढ़ी, जांच, प्रशिक्षण के औजार बढ़े, ईलाज बढ़ा, आय बढ़ी मगर स्वास्थ्य, सेहत, निरोग की स्थिति क्या है? पुलिस, पुलिस चौकी, थाने, सुरक्षा बलों की संख्या, हथियार, अस्त्र शस्त्र खूब बढ़े मगर सुरक्षा का क्या हाल है? भय, दहशत, नफरत, द्वैष, कड़वाहट, अलगाव, घृणा, दूरी बढ़ी है, बढ़ाई जा रही है। राजनीतिक दलों, नेताओं की संख्या बढ़ी है मगर राजनीतिक समझ, सोच, विचार, चिंतन, मनन का अभाव नजर आ रहा है। अर्थव्यवस्था अनर्थकारी बनाई गई है। लाभ से पहले शुभ मंगल कल्याण की सोच, भाव आता था। अब लाभ के स्थान पर लोभ, लालच, लूट ने ले ली है। शिक्षा ने इंसान का जीवन नफ्फो-घट्टो अर्थात लाभ-हानि पर लाकर खड़ा कर दिया है।

       संक्षेप में शिक्षा हमें सभ्य बनाती किन्तु विद्या सुसंस्कारी। जीवन में दोनों का ही महत्व है किन्तु विद्या का समाविष्ट किए बिना शिक्षा अधूरी है। शिक्षा ग्रहण करके हम एक सफल मानव तो बन सकते लेकिन महामानव कभी नहीं। शिक्षा भौतिक सुख और समृद्धि का सूचक है, लेकिन विद्या लौकिक जीवन के साथ-साथ पारलौकिक जीवन के सुख, समृद्धि और शांति का सूचक है। आज हम आने वाली पीढ़ी को शिक्षित तो करने का भागीरथी प्रयत्न कर रहे किन्तु विद्या प्राप्ति हेतु हम तनिक भी उत्साही नहीं हैं। सामाजिक ढांचे के पतन का मूल कारण यही है। आधुनिक समाज में व्यक्ति अपने बैंक बैलेंस की चिंता तो करता है, लेकिन लाइफ बैलेंस की चिंता नहीं करता है। क्योंकि वह गुरु से विद्या(ज्ञान) नहीं लेता है बल्कि शिक्षक से शिक्षा और सूचना ग्रहण करता है।
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रचनाकार

Author

  • डॉ प्रदीप कुमार सिंह

    असिस्टेंट प्रोफेसर-प्राचीन इतिहास.मऊ-उत्तर प्रदेश. Copyright@डॉ प्रदीप कुमार सिंह/इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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