वापसी

महेश बाबू जब सेवा मुक्त होकर गांव लौटे तो बिल्कुल अकेले हो गए। साल भर पहले हीं पत्नी का स्वर्गवास हो गया था । एक हीं बेटा गोपाल वह भी दिल्ली में इंजीनियर था। जब शहर में थे तो अपने सहकर्मियों के साथ उठते बैठते किसी तरह समय कट हीं जाता था पर गांव में आकर बिल्कुल अकेले हो गए।

अब गांव भी पहले वाला गांव नहीं रहा जब लोग एक दूसरे से बंधे रहते थे, एक दूसरे के घर जाते, सुख दुख में सहभागी होते पर अब तो अपनी बीवी और अपने बच्चे यही सब की दुनियां बन गई है। नौकर चाकर का भी अकाल पड़ गया है पहले तो एक आवाज में हीं नौकरों का तांता लग जाता था । नौकरी करवाने वालों से करने वाले कई गुना अधिक होते थे तभी तो पेट भात पर भी खटने के लिए तैयार हो जाते थे। अब कोई क्यों खटे दिल्ली पंजाब जो जाने लगे । तभी तो गांव का विकास भी हुआ है। खेत भी वही खेतिहर भी वही असली विकास तो तब हुआ जब लोग खेत से निकलकर कमाने के लिए बाहर जाने लगे। मुझे याद है मुसहरी टोला का मेरा हलवाहा जब पंजाब जाने लगा था तो उसे अड़यातने सारा गांव उमड़ पड़ा था। सगे संबंधी रो रहे थे जैसे अब कभी वापस नहीं आएगा पर अब तो कोई विदेश भी चला जाता है तो किसी को पता भी नहीं चलता है।

भले हीं बड़े लोगों के लिए जमाना खराब हो गया हो पर दबे कुचलों के लिए तो असल में अब रामराज आया है। दो-चार महीने में ही बाहर से कमा कर इतने ले आते हैं कि गांव में पांच साल में भी उतने नहीं कमा पाएंगे।

मनोहर बाबू जब शहर में थे तो आसानी से घर बैठे हीं सब कुछ मिल जाता था पर गांव में तो ऐसी सुविधा नहीं होती सब्जी हो या दूध सब लाने के लिए जाना पड़ता है और अब इस उम्र में झोला टांग के लाना भी तो अच्छा नहीं लगता।

निर्मला की बरसी आ गई है, चलो गोपाल को फोन कर देता हूं । पर मनोहर बाबू ने यह सोच कर फोन नहीं किए कि एक हीं तो बेटा है और उसकी मां की पहली बरसी है उसे भी तो याद होना चाहिए ना, क्या वह फोन करके नहीं पूछ सकता है ?

इसी तर्क वितर्क में दिन बीतते गए । वे फोन भी नहीं कर पाए जब मात्र

चार दिन रह गए तो मनोहर बाबू से नहीं रहा गया , घर आने के लिए फोन कर हीं दिए । बेटा ! चार दिन बाद तुम्हारी मां की बरसी है तुम लोग आ रहे हो ना?

अरे हां बाबू जी मां की बरसी तो इसी महीने की एकादशी तिथि को है ना?

हां बेटा! और एकादशी आने में अब मात्र चार दिन बांकी रह गए हैैं ।

वो नो बाबूजी ! आपने पहले क्यों नहीं बताया?

बेटा तुम्हारी मां की बरसी है तुझे भी याद रहना चाहिए ना?

सॉरी बाबू जी मैं भूल गया था पर क्या करूं घर गृहस्ती से समय भी मिले तब ना, आप तो जानते हैं बाबूजी कि नौकरी करने में कितना टेंशन रहता है ऊपर से इतने बड़े शहर में क्या बताऊं सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती । पर आप चिंता मत कीजिए बाबूजी मैं समय से आ जाऊंगा।

बारसी से एक दिन पहले भी जब गोपाल नहीं आया तो मनोहर बाबू गांव का एक आदमी को साथ लेकर खुद सामान खरीदने बाजार चले गए । शाम को थके हारे आए तो चाय तक बनाकर पीने में आलस होने लगा , एक गिलास दूध पीकर सो गए ।

आधी रात बीत गई पर नींद नहीं आ रही थी । बीते दिनों की याद एक-एक कर तरोताजा होने लगी ।

निर्मला थी तो जीवन जीना कितना आसान था ।ऑफिस से लौटने से पहले हीं चाय नाश्ता तैयार रखती थी । भूख नहीं रहने पर भी जिद करके खिलाती थी। बिना कुछ गलत किए अकारण हीं दो चार बातें ऊंची आवाज में बोल देते थे तो हंस के टाल देती थी। कभी भी उनकी बातों का बुरा नहीं मानी इसलिए तो वे भी जो भी मुंह में आते बोल देते थे। बाद में खुद हीं पश्चाताप करते कि गलती किए बिना हीं ना जाने क्यों मुंह से अनाप-सनाप निकल जाता है ।

एक बार मनोहर बाबू ने निर्मला से पूछा भी था कि निर्मला ! बिना गलती किए हीं तुमको बहुत कुछ बोल देता हूं क्या तुझे बुरा नहीं लगता है ? वह हंसकर कहती नहीं जी बुरा क्यों लगेगा आप घर से लेकर कॉलेज तक का काम करते हैं थोड़ा बहुत गुस्सा आना तो स्वाभाविक है ना?

मनोहर बाबू की आंखों में आंसू आ जाते प्यार से निर्मला का गाल छूकर कहते क्या सच कह रही हो, क्या सचमुच तुझे कभी गुस्सा नहीं आता है ?

वह मुंह से तो कुछ नहीं बोलती पर ना में सिर हिलाती तो उनकी आंखों से बड़ी-बड़ी बुंदे टपक जाती । मनोहर बाबू जब पोछने लगते तो हाथ पकड़कर बोलती रहने दो प्यार के आंसू हैं ।

इसी तरह निर्मला से जुड़ी एक एक कर ना जाने कितनी तस्वीरें उभरती रही और कब आंख लग गई पता हीं नहीं चला । सुबह में नींद तब टूटी जब गोपाल ने दरवाजे पर आकर बेल बजाई ।

गोपाल को अकेले देखकर मनोहर बाबू समझ गए कि बहू नहीं आई फिर भी उसने पूछ दिया-बेटा! अकेले आए हो, बहू बच्चे नहीं आए क्या ?

नहीं पिताजी गोलू को स्कूल से छुट्टी नहीं मिली इसलिए वे लोग नहीं आ पाए, पर आप चिंता मत कीजिए बाबू जी मैं हूं ना मैं सब अच्छे से कर लूंगा ।

हां हां वो तो ठीक है बेटा सारी तैयारियां तो मैंने पूरी कर ली है सिर्फ कर्म करना है । अभी तो लॉक डाउन है ना इसलिए भोज – भात तो होगा नहीं सिर्फ पंडित जी को बुलाकर कर्म करके पांच दस लोगों को खिला देना है।

ठीक है बाबू जी आप जैसा कहेंगे वैसा हीं होगा।

निर्मला का वार्षिक श्राद्ध विधिवत् संपन्न हो गया। गोपाल सिर्फ दो दिनों की छुट्टी लेकर आया था। दूसरे दिन जाने से पहले अपने पिताजी से बोले-बाबूजी! अब आप घर में अकेले रह कर क्या करेंगे अकेलापन झेलना आसान नहीं होता आप भी मेरे साथ चलिए वहां गोलू मोलू के साथ आपका मन खूब लगेगा ।

मनोहर बाबू को भी अकेलापन का दंश झेलना मुश्किल हो रहा था । शेष जिंदगी अपने बच्चों के साथ बिताना चाहते थे फिर भी उपरी मन से बोले-बेटा मैं घर गृहस्ती किसके भरोसे छोड़ कर जाऊं कौन संभालेगा इसे ?

इसे संभालना क्या है बाबूजी ! खेत पथार तो भोलू चाचा कर हीं रहे हैं ना जो भी फसल होगी उसे बेचकर रुपए भेज देंगे ।

पर बेटा तुम तो आज हीं जाओगे ना इतनी जल्दी मैं तैयारियां कैसे कर पाऊंगा ।

तैयारियां क्या करनी है बाबूजी पहनने वाले जो भी कपड़े हैं ले लीजिए साफ उफ वहीं हो जाएगा ।

आगे कुछ भी नहीं बोल पाए मनोहर बाबू । चार बजे जोगबनी से दिल्ली जाने वाली ट्रेन थी सो दो बजे घर के सारे खिड़की दरवाजे बंद करके गांव के दो चार आत्मीय जनों से मुलाकात कर दोनों बाप -बेटा निकल पड़े।

मनोहर बाबू दूसरी बार दिल्ली जा रहे थे। पहली बार जब गोपाल की नौकरी लगी थी तभी निर्मला के साथ गए थे। कॉलेज से पन्द्रह दिनों की छुट्टी लेकर गए थे खूब घूमे -फिरे थे दिल्ली जैसे महानगर में । इस बार निर्मल की याद लेकर जा रहे हैं ।

सरसराती ट्रेन की खिड़की से सर टिकाए बैठे मनोहर बाबू गोपाल से बोले बेटा मैं भी तुम्हारे साथ जा रहा हूं यह बात बहू को बता दिया है ना ?

बताना क्या है बाबूजी! पहुंचेंगे तो खुद हीं देख लेगी ना ।

फिर भी बता देना चाहिए बेटा!

ठीक है बाबूजी मैं फोन करके बता देता हूं,

हां – हां बता दो बहू है उसे पता होना चाहिए कि मैं भी आ रहा हूं ।

गोपाल मनोहर बाबू की एकलौती संतान थी बड़े लाड प्यार से पालन पोषण किए थे। कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी लाड़ प्यार करने में खासकर निर्मला की तो जान हीं बसती थी मनोहर में।

कभी-कभी मनोहर बाबू निर्मला से बोल भी देते थे कि तुम दोनों मां-बेटे का लाड प्यार तो कृष्ण यशोदा से भी बढ़ कर है। निर्मला हंस कर कहती हर मां के लिए अपना लल्ला कृष्ण हीं होता है इसलिए तो मैंने अपने लल्ला का नाम गोपाल रखा है ।

कितनी खुशी थी, छोटा सा परिवार मानो खुशियों का सागर में तैर रहा हो । कहते हैं ना सुख के दिन पलक झपकते हीं बीत जाते हैं । गोपाल भी एक छोटा सा नन्हां सा लल्ला से कब एक होनहार बेटा बनकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया निर्मला को पता हीं नहीं चला । दिल्ली जैसे शहर में बड़े ओहदे पर बेटे को देखकर खुशी का ठिकाना ना रहा अपनी घर गृहस्ती छोड़कर भागी -भागी बेटे का घर संभालने दिल्ली आ गई थी । पन्द्रह दिन बाद मनोहर बाबू तो लौट गए पर निर्मला कई महीने तक वहीं रहकर बेटे का घर संभालती रही । बहुत खुश थी पर खुशियां हमेशा के लिए नहीं आती है यशोदा मैया को भी पुत्र वियोग सहना पड़ा था सो एक दिन निर्मला को भी वात्सल्य प्रेम का अथाह सागर से निकलकर पति के पास आना पड़ा , और फिर कुछ दिनों बाद जब पता चला कि गोपाल दिल्ली में हीं अपनी पसंद की लड़की से शादी कर रहा है तो बहुत जोर का धक्का लगा गिरते गिरते किसी तरह संभल पाई । भागकर बेटे की शादी में शामिल होना चाही पर पति का आत्मसम्मान को पार कर आ ना सकी । यही तो होती है औरत की जिंदगी। पति और संतान के बीच खड़ी निष्कर्ष नहीं कर पाती कि किधर पैर बढ़ाए, एक तरफ ममता की परवाह किए बिना मातृत्व को ठेस पहुंचाने वाला पुत्र तो दूसरी तरफ सात जन्मों तक साथ निभाने का वादा करने वाले आत्मसम्मान की बेड़ी लिए पति की करुणामई मौन दृष्टि । यदि पति सच्चा जीवन साथी हो, पत्नी के लिए अथाह प्रेम और मान सम्मान का रखवाला हो तो पतिपरायणा स्त्री को भी हर सुख दुख में पति का साथ निभाना पड़ता है, इसलिए निर्मला ने भी पति का आत्मसम्मान की रक्षा करती हुई अपने पुत्र प्रेम को तिलांजलि तो दे दी पर अंदर हीं अंदर मातृत्व में दीमक लगने से खोखली होती गई।

मां बनना सबसे बड़ा सौभाग्य और मां सुनना अनंत प्रेम का अथाह सागर को आत्मसात करने जैसा होता है इससे छूटना इसे त्यागना कठिन हीं नहीं असंभव होता है।

पुत्र वियोग की दहकती चिता में ममत्व की आहुति देने का दर्द से कराहती हुई एक मां को पति को इस असह्य वेदना का भनक न लगे इसलिए अपनी वेदना को आंचल में समेटकर पति के सामने हमेशा मुस्कुराने का अभिनय करना पड़ा । पर अभिनय तो अभिनय हीं होता है असल जीवन से उसका दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होता है।

कुछ दिनों के बाद मनोहर बाबू सेवा मुक्त हो गए । निर्मला के गिरते स्वास्थ्य को देखकर वे गांव आ गए । निर्मला का मन यहां भी एक निराकार शुन्य में खोया रहा । शरीर पति के पास तो मन पुत्र के पास । बहुत दिनों तक अभिनय नहीं कर पाई बीमार होकर गिरी तो फिर संभल ना सकी । डॉक्टर वैद्य सब के सब हार गए पर किसी ने भी बीमारी का पता तक नहीं लगा पाये । एक मां की ममता को ठेस लगी , उससे जो घाव हुआ उसकी दवा देने का सामर्थ्य भला किसमें हो सकता है ? कोई दवा काम नहीं की निराकार शुन्य में जैसे लोग ईश्वर का चिंतन करते हैं वैसे हीं निर्मला भी अपने पुत्र की छवि को निहारती हुई परलोक सिधार गई । मनोहर बाबू सिर्फ टूटे हीं नहीं टूटे तो पहले हीं थे अब टूट कर बिखर गए । आंसू भी बहा ना पाए, आंसू तो लोग तब बहाते हैं जब कोई पोछने वाला अपना हो । बेटा बहू सब आए ,श्राद्ध कर्म भोज भात सब संपन्न हुआ फिर एक दिन गोपाल अपने परिवार के साथ चले गए और अकेले रह गए मनोहर बाबू ।

दूसरे दिन सुबह चार बजे गाड़ी दिल्ली पहुंची । ऑटो में बैठकर गोपाल अपने बाबूजी के साथ रोहिणी नगर गए तब तक सात बज गए। पांचवीं मंजिल पर चढ़ते चढ़ते मनोहर बाबू के पांव दुखने लगे । कई बार वेल बजाने के बाद दरवाजा खुला सामने गोरी चिट्टी औरत एक निगाह डाल कर अपने बेडरूम की ओर बढ़ गई । एक झलक में हीं मनोहर बाबू अपनी बहू को भी और बहू के स्वभाव को भी समझ गए आशीर्वाद देने की लालसा मन में हीं दब कर रह गई । बहु ने तो पैर छूना दूर गुड मॉर्निंग तक नहीं बोली । गोपाल अपने बाबूजी को लेकर बेडरूम से सटा एक छोटा सा कमरा में गया जहां गोलू मोलू अभी तक सो रहा था । गोपाल जगाने लगा तो अपने बेडरूम से हीं शालिनी बोल पड़ी अरे सोने दो बच्चे रात में देर से सोए हैं संडे है क्या करेंगे अभी जग कर । बाबूजी का सामान रखते हुए गोपाल बोले बाबूजी आप कपड़े बदलकर यहीं गोलू मोलू के पास कुछ देर आराम कर लीजिए तब तक मैं भी फ्रेश हो जाता हूं ।

आठ बजे शालिनी एक गिलास पानी और एक कप चाय लाकर टेबल पर रख दी और बिना कुछ बोले हीं चली गई पीछे से गोपाल आकर बोला बाबूजी चाय पी लीजिए थकान दूर हो जाएगी ।

अपने पोतों के साथ खेलते बतियाते हुए मनोहर बाबू का अकेलापन तो थोड़ा कम हुआ पर परायापन का भार ना सिर्फ आत्मीय सम्मान को ठेस पहुंचा रहा था बल्कि उसकी सुनी जिंदगी में एक लकीर खींच रहा था जिसकी पेंसिल थामी शालिनी भी अपनी स्वच्छंदता में ग्रहण लगने से बेचैन हो रही थी। छोटी-छोटी बात को लेकर दोनों पति-पत्नी में हमेशा नोकझोंक होते देखना मनोहर बाबू को कतई पसंद नहीं था ।

निर्मला का समर्पण भाव ,त्याग तपस्या एवं पति की जिंदगी में अपनी जिंदगी को विसर्जित करने वाली पतिपरायणा स्त्री का सुख भोग चुके , पति को पलट कर कटु जवाब देने वाली एवं पति पर रोब जमाने वाली बहू और खूंटे में बंधे पशु की तरह लाचार बेबस बेटे को दांपत्य की डोर थामे घसीटते हुए जिंदगी जीते देखना मनोहर बाबू के लिए असह्य हीं नहीं पीड़ादायक भी था तथापि सब कुछ नजरअंदाज करते हुए पोतों के साथ खुश थे ।

अभी मनोहर बाबू को आने से एक महीना भी नहीं हुआ था कि शालिनी के माता-पिता के आने की खबर सुनकर गोपाल तिलमिला उठा । कहां रहेंगे इतने लोग ? दो कमरे मैं कैसे एडजस्ट होंगे इसी को लेकर फिर पति पत्नी में ठन गई ।

जो भी हो कान खोल कर सुन लो गोलू मोलू के कमरे में तो मम्मी पापा हीं रहेंगे तुम अपने बाबूजी को कहीं एडजस्ट कर दो ।

शालिनी का दो टूक जवाब सुनकर गोपाल दंग रह गया पर कुछ बोलता तो घर में कलह होती इसलिए चुप रह कर कोई उपाय सोचने लगा।

जिस कॉलोनी में गोपाल रहता था उसी मैं उसका दोस्त संजय भी रहता था । संजय के पिता उमा शंकर बाबू और मनोहर बाबू एक हीं कॉलेज के प्रोफ़ेसर थे इसलिए संजय और गोपाल बचपन के जिगरी दोस्त थे । किस्मत भी क्या साथ निभाई दोनों की पढ़ाई लिखाई एक साथ हुई दोनों इंजीनियर बने और नौकरी भी दोनों की एक ही कंपनी में लग गई।

शाम में गोपाल संजय के घर गया उससे बात करना चाहा पर कैसे कहूं पता नहीं संजय को अच्छा लगे या ना लगे यही तर्क वितर्क में लगा हीं था कि संजय ने हीं पूछ लिया क्या बात है गोपाल क्यों उदास लग रहे हो ? कई दिनों से देखता हूं ऑफिस में भी गुमसुम रहते हो कोई परेशानी है तो बताओ मन हल्का हो जाएगा ।

गोपाल नजर झुका कर बोला ऐसी कोई बात नहीं है संजय तुम तो जानते हो कि मात्र दो कमरों का मेरा फ्लाईट है । गोलू मोलू के कमरे में बाबूजी रहते हैं और अब शालिनी के मम्मी पापा आ रहे हैं इसलिए चिंतित हूं कैसे एडजस्ट करुंगा ।

संजय कुछ आश्चर्य भरी दृष्टि से गोपाल की ओर देख कर बोला अरे गोपाल अंकल कब आये तूने बताया नहीं ?

हां संजय मैं तो बताना भूल हीं गया था मम्मी की बरसी में घर गया था तो पापा को साथ लेते आया ,पापा वहां बिल्कुल अकेले थे ।

यह बहुत अच्छा किया तुमने अंकल यहां रहेंगे तो अकेलापन का एहसास नहीं होगा

हां यही सोच कर तो मैंने बाबूजी को ले आया पर शालू के मम्मी पापा के आने से समस्या में पड़ जाऊंगा यही चिंता सता रही हैं । एक बात पूछूं संजय !

हां -हां बोलो ना क्या पूछना है?

संजय ! कुछ दिन पापा तुम्हारे घर में रह सकते हैं?

हां हां क्यों नहीं मेरा गेस्ट रूम खाली हीं तो है ।

पर नीतू भाभी को बुरा तो नहीं लगेगा ना?

अरे नहीं यार उसकी चिंता छोड़ो उसे तो मम्मी का रहना भी पसंद नहीं है पर क्या करूं कौन मुंह लगाए अनसुना कर देता हूं ।

यही समस्या तो हर घर में है संजय ! जबसे बाबूजी आए हैं तब से शालू का स्वभाव हीं बदल गया है । बाबूजी से सीधा मुंह बात तक नहीं करती मुझे भी हमेशा जली कटी सुनाते रहती है । क्या करूं समझ में नहीं आता । उसके मम्मी पापा आते हैं तो ऐसा लगता है जैसे घर में खुशियों की बहार आ गई हो और मैं जबसे बाबूजी को लाया हूं घर में मातम सा छा गया है । इन औरतों का हीं सब सुनते -करते रहो तो यह प्यार की फुलझड़ी लगा देगी और अपने मन का करो तो सारी खुशियां छूमंतर हो जाएगी ।

अरे बस- बस यह सब छोड़ो आजकल हर घर में यही रामायण महाभारत होता है, ये बताओ कि कब अंकल को ला रहे हो ?

मेरे घर में जैसे हीं मेहमान आ जाए तो लेते आऊंगा । वैसे शालू बोल रही थी कि कल सुबह तक उसके मम्मी पापा पहुंच जाएंगे ।

दूसरे दिन ठीक दस बजे शालिनी के मम्मी पापा आए तो घर में मनोहर बाबू को देखकर सकपका से गए । औपचारिक नमस्कार पाती हुआ पर सबके चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी ।

शाम को खाना खाने के बाद गोपाल अपने पिता से बोला- बाबूजी आप मेरे साथ संजय के घर चलिए ,कुछ दिनों के लिए आपको वहीं रहना है । संजय खुद आपको लेने आ रहा था मैंने मना कर दिया वहां गंगा आंटी भी है आपको कोई दिक्कत नहीं होगी ।

गोपाल की बात से मनोहर बाबू आश्चर्यचकित नहीं हुए बल्कि उसके माथे पर खुशी की लकीर साफ झलक रही थी । मुस्कुरा कर बोले – अरे अपना संजू बेटा का घर , गंगा भाभी का घर क्या गंगा भाभी यही है ? अरे तुमने तो कभी बताया हीं नहीं कि संजय भी यही रहता है ।मनोहर बाबू एक हीं सांस में ना जाने कितने सवाल कर दिए ।

अरे हां बाबूजी मैं सचमुच में आपको बताना भूल गया था , चलिए ना संजय और गंगा आंटी बेसब्री से आपका इंतजार कर रही होगी ।

संजय और गंगा भाभी से मिलकर मनोहर बाबू को ऐसा लगा जैसे बरसों बाद कोई अपनों से मिले हैं । अपने घर में तो नाम मात्र के अपने थे । गोपाल भी पत्नी का स्वभाव से इतना खिन्न था कि कभी अपने पिता के पास बैठ कर दो चार भूली बिसरी बातें नहीं कर पाया । सालों बाद सब लोग इकट्ठे बैठकर देर रात तक बतियाते रहे ।

संजय का घर बड़ा था दो चार गेस्ट आ जाए तो भी कोई दिक्कत नहीं थी । मनोहर बाबू भी खुश थे घंटो घंटो तक गंगा भाभी से बतियाते हुए कब सुबह से शाम हो जाती पता हीं नहीं चलता । निर्मला के नहीं रहने से जीवन में जो एक सूंनी खाई हो गई थी वह धीरे-धीरे भरने लगी ।

संजय भी बड़ा हसमुख लड़का था जब भी समय मिलता तो गेस्ट रूम आकर मम्मी और अंकल से बतियाते रहता था ।

जब तीनों एक साथ होते तो बीच-बीच में निर्मला की चर्चा भी हो हीं जाती और फिर एक-एक कर सारे पुराने चित्र उभर कर भूली बिसरी यादों को तरोताजा करने लगते ।

कॉलेज के दिनों में दोनों परिवार ना सिर्फ एक मकान में रहते थे बल्कि एक परिवार बनकर रहते थे । निर्मला और गंगा में तो सगी बहन से भी ज्यादा प्रेम था । ऐसा कोई दिन नहीं था जो एक दूसरे के रसोई का स्वाद सब मिल बांट कर ना लिया हो। तीज त्यौहार के दिन तो पूरा घर एक परिवार बन जाता था । संजय और गोपाल में से यह बताना मुश्किल था कि कौन किसका पुत्र था । निर्मला की रसोई का खाना हीं संजय को पसंद था, दोनों जुड़वा भाई की तरह लगता था ।

उमाशंकर बाबू के गुजरने के बाद संजय अपनी मां को दिल्ली ले तो आया पर उसको इस बात का ना सिर्फ एहसास हीं नहीं था बल्कि पूर्ण विश्वास था कि मां यहां आकर खुश नहीं है । पुराने जमाने की सोच और संस्कार पर चलने वाली , पूजा-पाठ, व्रत-त्योहार को दिल से मानने वाली एक आध्यात्मिक महिला को मॉडर्न चाल ढाल वाली बहू कहां तक पसंद होती, कोई ना कोई बात लेकर घर में कलह हो हीं जाती थी ।

पेट भर भोजन कपड़े और दवाई हीं सिर्फ बुढ़ापे का जीवन नहीं होता , आत्मसम्मान स्वयं का अधिकार और सर्वांगीण स्वतंत्रता से सुसज्जित बुढ़ापे का जीवन किसे अच्छा नहीं लगता फिर जिसके पास खुद की सिरजी हुई संपत्ति और सरकारी पेंशन हो उसे भला सुसज्जित कमरे में टूटा फूटा अधिकार और जेल में बंद कैदी बराबर स्वतंत्रता में जीवन को घसीटना क्यों पसंद आए । मां बाप की तपस्या से फलीभूत संतान भले हीं कितने बड़े ओहदे पर क्यों ना हो मां बाप का अधिकार उस पर जायज है पर पति और पति की कमाई पर पत्नी का अधिकार इतना ज्यादा हावी हो जाता है कि माता-पिता धुंधले दिखने लगते हैं।

महीना भर से ज्यादा हो गया शालिनी के माता-पिता जाने का नाम हीं नहीं ले रहे थे । अब ये तो भगवान हीं जाने कि उसके मां-बाप खुद बेटी दामाद के पास रहने आए थे या फिर बेटी के खास बुलावे पर आए थे ।

शुरू- शुरू में संजय के घर में रहना मनोहर बाबू को भले हीं अच्छा लग रहा था पर स्वाभिमान को ज्यादा दिन तक गिरवी भी तो नहीं रखा जा सकता ना ? कहीं नीलाम ना हो जाए यही डर लगा रहता था।

संजय का गेस्ट रूम ऊपर वाले फ्लोर पर था । दूरी होने के कारण धर का दैनिक कलह से भले हीं मनोहर बाबू अनभिज्ञ थे पर संजय और गंगा भाभी का उतरा हुआ चेहरा देखकर घरेलू वातावरण का अंदाजा लगा हीं लेते थे ।

एक दिन शाम के समय रात का भोजन साथ-साथ करने के लिए गोपाल मनोहर बाबू को आकर अपने घर ले गया । भोजन में अभी विलंब था सो शालिनी के मां-बाप इधर उधर की बातें करते-करते मनोहर बाबू से बोले – समधी जी ! अब आप अकेले गांव में रह तो नहीं सकते और यह घर इतना छोटा है कि पूरा परिवार का रहना मुश्किल है आखिर आप कब तक संजय के घर में रहेंगे , हमारी भी तो शालिनी एकलौती बेटी है अब बुढ़ापा तो इन्हीं बच्चों के साथ काटना होगा । क्यों ना आप गांव की जायदाद बेचकर इन के लिए एक बड़ा सा घर खरीद लेते ?

एक हीं सांस में बिना लाग लपेट के इतनी बड़ी बात सुनकर मनोहर बाबू अकचका गए । बात क्या एक तरह से निर्णयात्मक विचार थोपना हुआ ।

कुछ सोचकर गंभीर मुद्रा में मनोहर बाबू बोले – बात तो ठीक है समधी जी ! पर मेरी जायदाद गांव में है और गांव की सारी जमीन और घर बेचकर भी दिल्ली जैसे शहर में एक घर खरीदना मुश्किल है । आपका घर तो पटना जैसे शहर में है यदि उसे भी बेचकर लगा दिया जाय तभी संभव हो सकता है ।

मनोहर बाबू की बात से शालिनी के माता-पिता तो निरुत्तर हो गए पर शालिनी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया । लाज लिहाज का चोला उतार कर दहाड़ती हुई बोली – बाबूजी आपको देना है तो दीजिए , नहीं देना है तो मत दीजिए, यहां रहना है तो रहिए, नहीं रहना है तो मत रहिए पर मेरे मम्मी पापा को इस तरह का सजेशन देने वाले आप होते कौन हैं ?

शालिनी की बेशर्मी और पिता का झुका हुआ सिर देखकर शायद गोपाल के अंदर सोई हुए मर्दानगी की चिंगारी फूट पड़ी गरज कर बोला शालिनी तमीज से बात करो तुम मेरे पिताजी से बात कर रही हो ।

पहले अपने पिता को तमीज सिखाओ , फिर खुद सीखो तब मुझे सिखाना कह कर हांफती हुई शालिनी अपने बेडरूम की तरफ तेजी से बढ़ गई ।

मनोहर बाबू बिना कुछ बोले वहां से चुपचाप संजय के घर आ गए । खाना तक खाने के लिए कोई नहीं बोला । पीछे – पीछे गोपाल भी आकर पिता के पास बैठकर मांफी मांगता हुआ बोलते बोलते रो पड़ा – बाबूजी ! आज मैं समझ गया कि माता-पिता की दी हुई जिंदगी में उसके द्वारा लिए गए फैसले की क्या अहमियत होती है । मैंने बहुत बड़ी भूल की है कैसे मैं इसका प्रायश्चित कैसे करूं बाबूजी !

मनोहर बाबू शांत स्वर में बोले हां बेटा ! गलती तो हुई है ,भले हीं आज मुझे तुम्हारी गलती से बहुत बड़ी ठेस लगी है पर तुम्हारी मां तो तुम्हारी इसी गलती के कारण आज हमारे बीच नहीं है ।

उसे कोई बीमारी नहीं थी बेटा ! मैं भी उसका इलाज करवाता रहा समझ हीं नहीं पाया कि एक मां की ममता को जो ठेस लगी है उसका कोई इलाज नहीं है ।

हां बाबूजी कहकर गोपाल अपने पिता की गोद में सर रखकर फूट-फूट कर रोने लगा ।

संजय और उसकी मां भी इस घटना से काफी मर्माहत हुए ।

आंसू पूछते हुए मनोहर बाबू बोले- बेटा ! मेरे लिए एक टिकट बुक करा दो कल मैं वापस चला जाऊंगा । गोपाल रोता हुआ बोला हां बाबूजी ।

संजय मनोहर बाबू का हाथ पकड़ कर बोला एक नहीं दो टिकटें अंकल मां भी आपके साथ जाएगी । मैंने मां को यहां लाकर बहुत बड़ी भूल की है । फिर संजय हाथ जोड़कर बोला अंकल एक विनती है आप लोग मना नहीं कीजिएगा प्लीज,

गोपाल विस्मित होकर संजय की ओर देखने लगा । मनोहर बाबू बोल पड़े – क्या बात है बेटा ! और आप लोग से क्या मतलब ?

आप लोग से मतलब आप और मम्मी है अंकल । आप लोग वापस जाएंगे पर गांव नहीं जहां आपकी आधी जिंदगी के बिताए हुए पल ,जहां हमारा बचपन से जवानी तक के बिताए हुए पल आज भी हमें खींच रहे हैं वहीं जाएंगे । आप और मम्मी फिर से उसी प्रोफेसर कॉलोनी में रहिए जहां निर्मला आंटी की यादें आज भी आपकी बाट जोह रही है । आप और मम्मी एक साथ रहिए दोनों एक दूसरे का सहारा बनिए निर्मला आंटी को भी खुशी मिलेगी । मुझे और गोपाल को भी हर छुट्टी में जाकर फिर से एक साथ रहने का सौभाग्य मिलेगा ।

संजय की बात से गोपाल का मन सुबह की किरण पाकर कमल फूल की तरह खिल उठा । पिता का हाथ थाम कर बोला हां बाबूजी संजय ठीक कर रहा है हम लोगों को फिर से मां बाप का प्यार नसीब हो जाएगा , हमें बेसहारा मत कीजिए बाबूजी प्लीज बाबूजी !

मनोहर बाबू बिना कुछ बोले गंगा भाभी की ओर देखते हुए उसके मनोभाव को परखने लगे ।

गंगा देवी आंचल से आंसू पोछती हुई हां में सिर हिला कर बोली जैसी तुम लोगों की मर्जी । पास रहूं या दूर हमारी दुनियां तो तुम्हीं लोग हो बेटे ,,,,,

गाड़ी तेजी से पटरी पर दौड़ रही थी। मनोहर बाबू खिड़की से सिर टिकाए आंख मूंद कर अपनी वापसी

में खोए एक स्वप्न देखने लगे मानो घर पहुंचने पर निर्मला दरवाजे पर खड़ी कह रही थी कहां चले गए थे मुझे अकेले छोड़कर, कितनी देर लगा दी आप लोगों ने आने में ,,,,,,,,,,,

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रचनाकार

Author

  • अरुण आनंद

    कुर्साकांटा, अररिया, बिहार. Copyright@अरुण आनंद/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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