संसार में सामान्य रूप से प्रवृत्ति देखी जाती है कि प्रत्येक प्राणी सुख प्राप्त करना चाहता है एवं दुःखों से बचना चाहता है। मानव भी इसका अपवाद नहीं है, इसलिए मानवमात्र की प्रवृत्ति भी सुखोन्मुख ही देखी जाती है। ‘स्वामी सत्यपति परिव्राजक’ के शब्दों में- संसार में प्रत्येक मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति देखी जाती है कि वह समस्त दुःखों, बन्धनों एवं पराधीनता से मुक्त होना चाहता है और नित्यानन्द, मोक्ष एवं स्वतन्त्रता को प्राप्त करना चाहता है।[i] इसी प्रकार ‘हिन्दी शब्दसागर’ में सुख का अर्थ करते हुए कहा गया है कि- मन की वह उत्तम तथा प्रिय अनुभूति जिसके द्वारा अनुभव करने वाले का विशेष समाधान और संतोष होता है और जिसके बराबर बने रहने की वह कामना करता है। वह अनुकूल और प्रिय वेदना जिसकी सबको अभिलाषा रहती है।[ii]
उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि प्रत्येक प्राणी स्वाभाविक रूप से सुख की अभिलाषा रखता है और चाहता है कि उसकी सुख की स्थिति सदैव बनी रहे। ‘न्याय दर्शन’ में इस प्रवृत्ति की सत्ता को स्वीकार करते हुए सुख और दुःख को आत्मा का लिंग/चिह्न माना गया है-
इच्छाद्वेषप्रयत्न सुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगम्।।[iii]
अर्थात् इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान आत्मा के चिह्न हैं। इसी प्रकार चार्वाक् दर्शन में तो सुखप्राप्ति को मानव जीवन का परमश्रेय स्वीकार करते हुए येन-केन-प्रकारेण सुख प्राप्त करने का उपदेश दिया गया है-
यावज्जीवेत् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥[iv]
इसके अतिरिक्त पाश्चात्य दार्शनिक भी इस तथ्य को स्वीकार करते दिखलाई पड़ते हैं कि मनुष्य स्वभावतः ही सुख प्राप्त करना चाहता है। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक सुखवाद का सिद्धान्त इस धारणा पर आधृत है कि मनुष्य स्वभावतः सुख की खोज करता है। अन्य समस्त वस्तुएँ उसके सम्मुख सुख की खोज में साधन हैं तथा सुख ही हमारी इच्छाओं का लक्ष्य है।[v]
यह सुखप्राप्ति की इच्छा बड़ी प्रबल है। मनुष्यमात्र इसकी पूर्ति के लिए सदैव प्रयत्नशील दिखलाई पड़ता है। सुखानुभूति का मूल इच्छाओं / कामनाओं की पूर्ति में निहित माना जाता है अतः मनुष्य एक के बाद एक विभिन्न कामनाओं की पूर्ति में तत्पर रहता है। एषणाएँ (इच्छाएँ/कामनाएँ) असंख्य हैं परन्तु तीन एषणाओं को सबसे प्रबल एवं मुख्य माना जाता है। ये तीन एषणाएँ हैं- (१) लोकैषणा अर्थात् लोक में प्रतिष्ठा या ऐश्वर्य की कामना, (२) वित्तैषणा अर्थात् अतुल धन-सम्पत्ति अथवा भोग सामग्री अर्जित करने की अभिलाषा, एवं (३) पुत्रैषणा अर्थात् पुत्र-पौत्र, बन्धु-बान्धव, कुटुम्ब आदि की वृद्धि की इच्छा।
उपर्युक्त एषणात्रय का वर्णन ही प्रमुखता से पाया जाता है। अन्य सभी एषणाओं का अन्तर्भाव इन्हीं में हो जाता है। संन्यास आश्रम में प्रवेश के समय व्यक्ति प्रतिज्ञा करता है- “’पुत्रेषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता मत्तः सर्वभूतेभ्योऽभयमस्तु‘ अर्थात् आज से मैंने पुत्रविषयक, धनविषयक तथा लोकविषयक आतुरता और कामना का सर्वथा परित्याग कर दिया है। मेरे द्वारा सब प्राणियों को निर्भयता प्राप्त हो।“[vi] इसी प्रकार ‘शतपथ ब्राह्मण’ का भी वचन है-
“लोकैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च पुत्रैषणायाश्चोत्थायाथ भैक्षचर्यं चरिन्त।
लोक में प्रतिष्ठा वा लाभ धन से भोग वा मान्य पुत्रादि के मोह से अलग हो के संन्यासी लोग भिक्षुक हो कर रात–दिन मोक्ष के साधनों में तत्पर रहते हैं।“[vii]
परन्तु उपर्युक्त एषणात्रय के परित्याग करने अथवा इनसे सर्वथा अस्पृष्ट रहने की प्रतिज्ञा कोई संसार से विरक्त एवं योगनिष्ठ पुरुष ही कर सकता है। सांसारिक पुरुष तो इन्हीं की पूर्ति में सुख मानकर रात-दिन इनकी प्राप्ति में ही तत्पर दिखलाई पड़ते हैं। परन्तु इन एषणाओं की अत्यधिक पूर्ति होना तथा पूर्ति न हो पाना, दोनों ही मनुष्य के लिए दुःख का कारण बनते हैं। विपुल धन-सम्पदा एवं वैभव का स्वामी होने पर एक तो मनुष्य की विषयभोगों में प्रवृत्ति बढ़ जाती है जिससे वह विविध रोगों का भाजन बनता है। कहा भी गया है- ‘भोगे रोगभयम्‘।[viii] दूसरे सुखसाधनसम्पन्न व्यक्ति की हिंसा, व्यभिचार एवं नशा आदि कुकर्मों में प्रवृत्त होने की भी सम्भावना बढ़ जाती है जिनसे वह दुर्गति का शिकार होता है। रामधारी सिंह दिनकर का कथन है- “सुख के आतिशय्य से सडाँध पैदा होती है।“[ix] इस प्रकार एषणाओं. की अतिशय सिद्धि भी अन्त में मनुष्य को दुःख, विषाद अथवा नैराश्य की ओर ही ले जाती है। ‘योगवाशिष्ठ’ में कहा गया है-
शरीरधनदारादावास्थां समनुबध्नतः ।
इदं दुर्दुःखमज्ञस्य न कदाचन शाम्यति ।।[x]
अर्थात् देह, धन, स्त्री आदि में आसक्ति रखने वाले अज्ञानी का यह दुष्ट दुःख कभी भी शान्त नहीं होता।
दूसरी ओर इच्छाओं की सिद्धि न होने पर तो दुःख, खिन्नता एवं निराशा इत्यादि का होना स्वाभाविक ही है। वस्तुतः इच्छा/तृष्णा अथवा विषयभोगों में आसक्ति ही दुःख का मूल है। मानव जितना अधिक विषयों का भोग करता है उसकी भोगेच्छा उतनी ही और अधिक बलवती होती जाती है। यही बात निम्न श्लोक में कही गयी है-
“न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते ।।
काम उपभोग से शान्त नहीं होते अपितु घी की आहुति से अग्नि के समान उपभोग से काम और भी बढ़ जाते हैं।“[xi] यह विषयों की भोगेच्छा/तृष्णा मनुष्य को भयानक दुःखों के संसार में धकेल देती है। योगवाशिष्ठ में कहा गया है-
इच्छाविषविकारिण्यामन्त एव नृणामलम्।
दुःखप्रसरकारिण्यां हरिण्या जन्मजंगले ।।[xii]
अर्थात् जैसे व्याघ्र आदि से भरे जंगल में हरिणी की मृत्यु निश्चित है वैसे ही नानाविध दुःखों का विस्तार करने वाली इच्छारूपी विष के विकार से युक्त इस संसार में मनुष्यों की मृत्यु बिल्कुल निश्चित है।
जब कोई विवेकी पुरुष इच्छाओं की तृप्ति की निस्सारता को आत्मसात कर लेता है तो उसे इन तुच्छ विषयभोगों से विरक्ति हो जाती है। वह समझ लेता है कि विषयों के उपभोग से इच्छा कभी शान्त नहीं होती। एक दिन यह शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जाएगा परन्तु तृष्णा फिर भी उतने ही बलपूर्वक मन को उद्विग्न करती रहेगी। भर्तृहरि का निम्न श्लोक ऐसी ही वैराग्यपरिपूर्ण मनःस्थिति का वर्णन करता है-
भोगाः न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः, तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।।[xiii]
जब व्यक्ति इस सत्य को हृदयंगम कर लेता है कि वस्तुतः हम भोगों को नहीं भोगते, प्रत्युत भोग ही हमें भोगकर एक दिन ठोकर मार देते हैं। तब वह निस्सार भोगजन्य सुख को त्यागकर ऐसे मार्ग की खोज में प्रवृत्त हो जाता है जिससे शाश्वत सुख की प्राप्ति हो सके तथा दुःखों से सदा-सदा के लिए मुक्ति संभव हो जाए। ‘डॉ० किरण कुमारी’ के निम्न उद्गार- जो उन्होंने अपने ग्रंथ ‘वैदिक साहित्य और संस्कृति’ के प्रारम्भ में आभार ज्ञापन के अन्तर्गत कहे हैं- प्रस्तुत संदर्भ में विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं- “संसार में किसी को सदा तृप्ति नहीं मिलती। आशा–निराशा, तृप्ति अतृप्ति, सुख–दुःख आदि सभी होते हैं। यद्यपि जीवन संग्राम में मनुष्य निराशा, अतृप्ति और दुःख को मूल से उखाड़ फेंकना चाहता है, वे पुन: उसे आ घेरते हैं। जितने वेग से वह उनको हटा देना चाहता है, उतने ही वेग से आकर उससे लिपट जाते हैं। इस कारण मनुष्य प्रायः हमेशा ही संतप्त रहता है और चाहता है कि उसे कोई ऐसा आलम्बन या आधार मिले जिससे वह संतृप्त हो जाये। वह ऐसे आधार की खोज में निकल पड़ता है, जो शाश्वत सुख देने वाला हो, जो सदा–सदा एक सा रहता हो, जो पूर्ण हो और हो जो नित्य ।“[xiv]
वस्तुतः शाश्वत सुख देने वाला वह आधार योगमार्ग अथवा मोक्ष का मार्ग है। दुःखों से संतप्त व्यक्ति दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति एवं शाश्वत सुख की खोज में योगमार्ग का आश्रय लेता है। आचार्य उदयवीर शास्त्री के शब्दों में, “इस प्रकार सुख–दुःख की परिस्थितियों का एकाग्र मन से चिन्तन करता हुआ व्यक्ति उस दुःखसमूह से छूटने के लिए उद्विग्न हो उठता है। यह उद्वेग उसे दुःखबहुल सुख–साधनों की ओर से खिन्न कर देता है। तब वह राग–द्वेषादि से रहित होकर अपवर्ग के पथ का पथिक बन जाता है। यह अपवर्ग जन्म–मरण प्रवाह के नैरन्तर्य का उच्छेद कर देता है। अपवर्गदशा में सब प्रकार के दुःखों का अभाव रहता है।“[xv]
योगमार्ग के पथिक की योग्यता एवं अभिरूचि के अनुसार अनेक योगपद्धतियों का प्रतिपादन महर्षि पतंजलिकृत योगसूत्र में प्राप्त होता हैं, यथा- अष्टांग योग,[xvi] क्रियायोग,[xvii] “ ईश्वरप्रणिधान[xviii] आदि । योगमार्ग पर आरूढ़ साधक स्वयं द्वारा चयनित योगपद्धति के विभिन्न सोपानों को पार करता हुआ यदि योग के अन्तिम लक्ष्य अपवर्ग/मोक्ष को प्राप्त कर लेता है तो इस अवस्था में उसके समस्त दुःखों का अभाव हो जाता है और साधक निर्बाध रूप से आनन्दमय परमपिता परमात्मा के आनन्द का अनुभव करता है। अपवर्ग की अवस्था का वर्णन करते हुए आचार्य उदयवीर शास्त्री ने कहा है- “उस दशा में आत्मा को न कोई भय है, न बुढ़ापा और मौत; ये सब भौतिक संसर्ग में होते हैं। वहाँ केवल परब्रह्म परमात्मा आनन्दमय प्रभु के आनन्दमात्र का अनुभव आत्मा को हुआ करता है।“[xix] यह अपवर्गजन्य आनन्दानुभूति की उपलब्धि योगमार्ग की चरम परिणति है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्रत्येक मानव का स्वाभाविक लक्ष्य समस्त दुःखों से छुटकारा पाकर शाश्वत सुख/आनन्द की प्राप्ति करना है। परन्तु मानव अज्ञानवश विभिन्न एषणाओं/कामनाओं की पूर्ति में लिप्त हो जाता है और इसी में ही स्वयं को कृतकृत्य अनुभव करने लगता है। इस कारण जहाँ एक ओर विभिन्न एषणाओं/कामनाओं की पूर्ति करते-करते मनुष्य विलासी जीवन की ओर उन्मुख होकर परिणामतः विविध रोग आदि दुःखों का भाजन बन जाता है, वहीं दूसरी ओर एषणाओं/कामनाओं की पूर्ति न हो पाने के कारण खिन्नता, हताशा एवं निराशा इत्यादि के रूप में भी दुःख ही भोगता है। अतएव यदि मनुष्य मृत्यु आदि समस्त दुःखों से छुटकारा पाकर शाश्वत सुख/नित्यानन्द की प्राप्ति करना चाहता है तो उसके लिए एक ही मार्ग श्रेयस्कर है,[xx] और वह मार्ग योगसाधना का मार्ग है। अतएव मानव जीवन में योग की महती आवश्यकता है। स्वामी सत्यपति परिव्राजक ने भी निम्न शब्दों में यही निष्कर्ष प्रस्तुत किया है- “संसार में प्रत्येक मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति देखी जाती है कि वह समस्त दुःखों, बन्धनों एवं पराधीनता से मुक्त होना चाहता है और नित्यानन्द, मोक्ष एवं स्वतन्त्रता को प्राप्त करना चाहता है। उसके ये दोनों प्रयोजन विशुद्ध योग से ही सिद्ध हो सकते हैं। इनको सिद्ध करने का अन्य कोई उपाय नहीं है।“[xxi]
[i] स्वामी सत्यपति परिव्राजक योग दर्शनम्, सं० तृतीय सन् २००६, दर्शन योग महाविद्यालय, आर्य वन, रोजड़, साबरकांठा, गुजरात-३८३३०७, पृष्ठ २६
[ii] हिन्दी शब्दसागर, पृष्ठ ३५७१
[iii] न्यायसूत्र – १/१/१०
[iv] आचार्य बलदेव उपाध्याय : भारतीय दर्शन, सं० १९९७, शारदा मन्दिर, वाराणसी, पृष्ठ ८६
[v] डॉ॰ रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, सप्तम् सं० १९८०-८१, केदार नाथ राम नाथ, मेरठ, पृष्ठ १०६
[vi] डॉ० रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, सप्तम् सं०, १९८०-८१, केदार नाथ राम नाथ, मेरठ, पृष्ठ ८१
[vii] महर्षि दयानन्द सरस्वती: सत्यार्थ प्रकाश, ५८वाँ सं० २००४, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, खारी बावली, दिल्ली- ६, पृष्ठ ८४
[viii] भर्तृहरि – वैराग्य शतक : ३३
[ix] रामधारी सिंह ‘दिनकर’ : संस्कृति के चार अध्याय, द्वितीय सं० २००६, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ १८४
[x] योगवाशिष्ठ, निर्वाण प्रकरण (पूर्वार्ध) – ६/३४
[xi] डॉ० सिंह एवं शास्त्री : भारतीय दर्शनशास्त्र का इतिहास, तृतीय सं० १९७७, साहित्य भण्डार, सुभाष बाजार, मेरठ, पृष्ठ १२३
[xii] योगवाशिष्ठ, निर्वाण प्रकरण (उत्तरार्ध) ३६/३६
[xiii] भर्तृहरि : वैराग्य शतक – १२
[xiv] डॉ० किरण कुमारी : वैदिक साहित्य और संस्कृति – प्रथम भाग, सं० २००१, न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली, भूमिका (पृष्ठ ix )
[xv] आचार्य उदयवीर शास्त्री : न्यायदर्शनम्, सं० २००३, विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, ४४०८ नई सड़क, दिल्ली- ११०००६, पृष्ठ ३७
[xvi] यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि । योगसूत्र २/२९
[xvii] तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः । योगसूत्र २/१
[xviii] ईश्वरप्रणिधानाद्वा । योगसूत्र १/२३
[xix] आचार्य उदयवीर शास्त्री : न्यायदर्शनम्, सं० २००३, विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, ४४०८ नई सड़क, दिल्ली- ११०००६, पृष्ठ ५१
[xx] तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । यजुर्वेद – ३१/१८
[xxi] स्वामी सत्यपति परिव्राजक : योग दर्शनम्, सं० तृतीय, सन् २००६, दर्शन योग महाविद्यालय, आर्य वन, रोजड़, साबरकांठा, गुजरात – ३८३३०७, पृष्ठ २६