एषणाओं की धरा पर पनपती मन मृग में तृष्णा।
जीव को चौरासी घट पट तक घुमाती है मृगतृष्णा।।
आशाओं की प्रबल सरिता प्रवाहित अविरल मनस पर।
किन्तु जीव पिपासित ही भटकता नैराश्य होकर।
स्वप्न ही जब सत्य का प्रतिबिम्ब सा भासित हुआ।
मृग मरीचिका व्याधि से यह जीव तब ग्रसित हुआ।।
अविद्या के प्रपंच से पोषित हो जाती है मृगतृष्णा।।
जीव को०
तीक्ष्ण धूप में अवनी ऊपर जल अध्यासित होने लगता।
पिपासा से व्याकुल मृग इसके पीछे ही चलने लगता।
कस्तूरी को खोजता फिरता है मृग वाह्य संसार में।
जबकि रहती कस्तूरी उस मृग के अन्दर सार में।
निराशा के परम सुख लखि भाग जाती है मृगतृष्णा।।
जीव को०
ब्याल के मुख में फंसा मण्डूक कीट की चाह रखता।
तरुणियों के रूप से निबद्ध नर क्या क्या न करता।
सेमल पुष्प सदृश जग में तुष्टि की कलिका न खिलती।
तत्वज्ञान के बिना मृगतृष्णा से मुक्ति न मिलती।
कामना के वृहद वन में पुष्ट हो जाती मृगतृष्णा।।
जीव को०
प्रस्तरों को पूजता है विविध प्रकार के कर्म करता।
निशि दिवस फलाशक्त होकर जीव यत्र तत्र चलता।
आत्मा के दीप की ज्योति का साक्षात्कार होता।
मृगतृष्णा से मुक्त हो जाता परम उद्धार होता।।
बूँद को सागर से शेष भटकाती रहती मृगतृष्णा।।