हरदम थाम के रखता हूं।
फिर भी देखो उड़ता हीं जाता,
थाम ना इसको पाता हूं ।।
मन बावरा उड़ता हीं जाता,
पकड़ नहीं मैं पाता हूं ।
कभी यहां तो कभी वहां फिर,
खोज कहां मैं पाता हूं।।
कभी गुलाब बन जाता फिर,
भंवरा बन मड़राता रहता है ।
देख कहीं कचनार कली तो,
झट तितली बन जाता है ।।
यौवन का भार ढुवाते जब भी,
देख लिया किसी रमणी को।
झटपट बन पैरों का पायल,
लगा लुभाने उस तरुणी को।।
यदि कहीं दुत्कार मिला तो,
ठोकर खाकर गिर जाता है।
गिरता पड़ता फिर संभल के चलता,
मृगतृष्णा की दौड़ लगाता है।।
थाम के डोरी, मैं चीख के कहता,
रे मन ! क्यों तूं पागल बनता है?
देख! जमाना क्या क्या कहता,
जग सारा तुझ पर हंसता है।।
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