मनवा प्रिय दर्शन की आस।
कितने सावन बीत गये हैं मिटी न अजहूं प्यास।।
माया ठगिनी है भरमावत अंत में करे उदास।
मृगतृष्णा न मिटी मनस से सहे असह्य यम त्रास।।
लख चौरासी भरमत भरमत बने काल की ग्रास।
प्रियतम सुरति भई नहि कबहूं रहे उन्हीं के पास।।
सूर्य चंद्र चमकत नहि तहवां अविरल रहत प्रकाश।
सतगुरु साधि सहज पहुंचावैं अब मन कर विश्वास।।
रे मन दीप तूं सत्यलोक चल जगत सपन है झांस।
अमर प्रेम बदरी जहं बरसत शेष अमिट सुखवास।।
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