फेंकते हैं वे मुट्ठीभर मूढ़ी
देह पर देह लदीं
उपलाती हैं-मछलियाँ
प्रसन्न होते हैं पोखरपति
उनकी अहेरी आँखों में
प्रतिबिम्बित हो उठता है
चकमक मछली-पोखर !
वक़्त क़रीब है
शेष हैं बस कुछ दिन
वे ठेके पर चढ़ा देंगे पोखर
जाल लिए आयेंगे मछुआरे
मथ देंगे पोखर
फाँसेंगे मछलियाँ
मछलियों की तड़प नहीं
तिजोरी होगी
पोखरपति की दृष्टि में
पालेगा पोखर फिर
नयी मछलियाँ
वे फेकेंगे फिर
मुट्ठीभर मूढ़ी
एक दूसरे को ठेलतीं
परस्पर होड़ करतीं
किनारे उपलायेंगी मछलियाँ
वे प्रतीक्षा में होंगे
विक्रय-समय की !
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