भारत की आजादी में मऊ जिले की बलिदानी भूमिका

उत्तर प्रदेश भारत वर्ष का जनसंख्या दृष्टि से एक विशाल राज्य है। इसके पूर्वी छोर पर स्थित पांच मण्डल के सत्रह जिले पूर्वांचल के अंतर्गत आते हैं। भौगोलिक, भाषायी एवं सामाजिक रचना को देखते हुए निश्चय ही यह एक विशिष्ट क्षेत्र है। इसके उत्तर में नेपाल, पूर्व में बिहार प्रान्त, पूर्व-दक्षिण में झारखंड प्रान्त, दक्षिण में मध्यप्रदेश प्रान्त, दक्षिण-पश्चिम में प्रस्तावित बुन्देलखंड, पश्चिम में प्रस्तावित अवध प्रदेश स्थित हैं। पूर्वांचल मूलत: भोजपुरी भाषी क्षेत्र है और सत्रह जिले इसके अन्तर्गत रखे गए हैं। इसी पूर्वांचल की शहीदी धरती पर 19 नवम्बर, 1988 में तमसा नदी के किनारे मऊ जनपद का जन्म हुआ, लेकिन जनपद मऊ का इतिहास काफी पुराना है। रामायण एवं महाभारत कालीन सांस्कृतिक एवं पुरातत्विक अवशेष इस भू-भाग में यत्र-तत्र मिलते हैं। यद्यपि इस दिशा में वैज्ञानिक ढंग से शोध एवं उत्खनन के प्रयास नहीं किये गये हैं लेकिन भौगोलिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों तथा किवंदतियों के आधार पर इसकी पुष्टि होती है। मऊ जिला आजमगढ़ मंडल का एक हिस्सा है। यह जिला दक्षिण में ग़ाज़ीपुर जिले, पूर्व में बलिया जिले, पश्चिम में आजमगढ़ जिले और उत्तर में गोरखपुर तथा देवरिया जिले से घिरा हुआ है। घाघरा नदी इसकी उत्तरी सीमा बनाती है और दक्षिण सीमा को तमसा नदी छूती है। यहां के लोगों ने भारत माता को गुलामी की काली रात से आजादी के उजाले में लाने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन में बलिदानी भूमिका निभाई।

              स्वतंत्रता आंदोलन भारतीय इतिहास का वह युग है, जो पीड़ा, दुःख, कड़वाहट, दंभ, आत्मसम्मान, गर्व, गौरव तथा सबसे अधिक शहीदों के लहू को समेटे हुए है। स्वतंत्रता के इस महायज्ञ में समाज के प्रत्येक वर्ग और क्षेत्र ने अपने-अपने तरीके से योगदान एवं बलिदान दिए। इस भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में मऊ जनपद-उत्तर प्रदेश के लोगो ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने में बलिदानी भूमिका निभाई। लोगों को प्रेरित करने के लिए मऊ जनपद के वीर रस के महान कवि श्याम नारायण पांडेय ने महाराणा प्रताप के घोड़े 'चेतक' के लिए 'हल्दी घाटी' में लिखा -

रणबीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था।
गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था।
कवि श्याम नारायण पाण्डेय का देशप्रेम से ओत-प्रोत कविता हल्दीघाटी ने लोगों की रगों में उबाल ला दिया। अब किसी कीमत पर यहां के लोगों को पराधीनता स्वीकार नहीं थी। मऊ जनपद भारत माता को पराधीनता से मुक्त कराने हेतु सतत् संघर्षशील रहा। यद्यपि इस भू-भाग पर मऊ जिले का उदय आजादी के बाद 1988 ईस्वी में हुआ, लेकिन यहाँ आजादी की ज्योति सदैव प्रज्ज्वलित रही और लोगों ने आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।आजादी के लिए मधुबन की दहशत ब्रिटिश संसद में भी व्याप्त थी। मऊ जनपद माँ भारती को विदेशी हमलावरों के चंगुल से मुक्त कराने हेतु स्वयं को स्वतंत्रता की बलि वेदी पर हंसते-हंसते समर्पित कर दिया।

भारत में सतत् चलने वाला स्वतंत्रता आंदोलन का काल खण्ड जिसे स्वाधीनता का प्रथम संग्राम कहा जाता है 1857 से लेकर 1947 तक के आजादी की लड़ाई की आग यहाँ सदैव धधकती रही और समय-समय पर स्वतन्त्रता प्रेमी उसमें अपनी आहूति देते रहे। क्रांतिकारी पृष्ठभूमि के कारण ही इस क्षेत्र ने राष्ट्रीय नेतृत्व को सदैव आकर्षित किया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एवं राष्ट्रनायक पण्डित जवाहर लाल नेहरु व जननेता सुभाष चन्द्र बोस स्वाधीनता आंदोलन के दौरान यहाँ आये और लोगों को दिशा दी। स्वाधीनता के प्रथम संग्राम 1857 के क्रांति में इस क्षेत्र के लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। 1857 में इस अंचल के जिन दो सपूतों को सरेआम नीम के पेड़ पर लटका कर फाँसी की सजा दी गयी थी वे नवसृजित मधुबन तहसील के ग्राम-दुबारी के निवासी हरख सिंह व हुलास सिंह थे। चंदेल क्षत्रियों के इस गांव में स्वाधीनता के महान सेनानी बाबू कुँवर सिंह का आगमन हुआ था। स्थानीय लोगों ने बढ़-चढ़ कर उनका साथ दिया जिसका परिणाम भी उन्हें भुगतना पड़ा। चंदेल ज़मींदारी की सात कोस की ज़मींदारी छीनकर उस अंग्रेज महिला को दे दी गयी जिसका पति इस आन्दोलन में मारा गया था। गांव द्वारा कुँवर सिंह का साथ देने के आरोप में हरख सिंह, हुलास सिंह एवं बिहारी सिंह को बंदी बना लिया गया तथा इन्हें सरेआम फाँसी देने का हुक्म हुआ। बिहारी सिंह तो चकमा देकर भाग निकले लेकिन अन्य दो व्यक्तियों को ग्राम दुबारी के बाग में नीम के पेड़ पर लटका कर फाँसी दे दी गयी। इस घटना की समूचे क्षेत्र में कड़ी प्रतिक्रिया हुई। दोहरीघाट, परदहा, अमिला, सूरजपुर आदि गांवों के लोगों ने माल गुजारी देनी बंद कर दी। इस दौरान स्वाधीनता की लड़ाई को संगठित स्वरूप देने का प्रयास किया जिले के परदहा विकास खण्ड के ठाकुर जालिम सिंह ने। उन्होंने पृथ्वीपाल सिंह, राजा बेनी प्रसाद, ईशद जहां, मुहम्मद जहाँ, परगट सिंह आदि के साथ घूम-घूम कर स्वाधीनता की अलख जगायी। दुबारी के फाँसी काण्ड के बाद 01 अप्रैल,1857 को दोहरीघाट में सरयू तट पर स्थित गौरी शंकर घाट पर क्रांति की योजना बना रहे रणबाँकुरों पर अंग्रेजो ने सामूहिक रूप से गोली चलायी थी, उसमें जालिम सिंह भी शामिल थे और वे वहाँ से जीवित बच निकलने में कामयाब हुए। बाद में 03 जून,1857 को अपने सहयोगी सेनानियों के साथ जालिम सिंह ने आज़मगढ़ कलेक्ट्ररी कचहरी पर कब्जा कर उसे अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। 22 दिनों तक आज़मगढ़ स्वतंत्र रहा। 26 जून को दोहरीघाट में रह रहे नील गोदाम के मालिक बेनीबुल्स ने बाहर से आयी अंग्रेजी फौज और अपनी कूटनीति से पुनः इस जिले पर कब्जा कर लिया और तब शुरू हुआ क्रूर दमन का सिलसिला। क्रांतिकारियों को सरेआम गोली से उड़ा देना, सार्वजनिक फाँसी देना और क्रूर यातना देना आम बात हो गयी थी, इसके बावजूद आजादी के दीवानों का अदम्य उत्साह कम नहीं हुआ और न ही उन्होंने संघर्ष की ज्योति को धूमिल होने दिया। आजादी के दीवानों के जुझारूपन ने क्रांतिवीर कुँवर सिंह को न सिर्फ यहाँ आने के लिए प्रेरित किया वरन् उनके साथ लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिया। कुँवर सिंह बलिया होकर यहाँ आये तथा मऊ जनपद के दुबारी ग्राम में प्रवेश किया। वहीं उन्होंने भावी संघर्ष की रूपरेखा बनायी तथा अप्रैल,1858 में विभिन्न स्थानों पर अंग्रेजों से जम कर लोहा लिया। शाहगढ़ के समीप हुए युद्ध में उन्होंने अंग्रेजों को करारी शिकस्त दी। बाद में अंग्रेजों ने अपनी बढ़ी हुई शक्ति व कूटनीति से इस इलाके पर पूरी तरह अपना प्रभुत्व स्थापित कर शोषण और दमन का सिलसिला चलाया लेकिन उनके दमन और अत्याचार के बावजूद स्वधीनता सेनानियों का संघर्ष भी जारी रहा।

राष्ट्रीय फलक पर स्वाधीनता सेनानी के रूप में महात्मा गांधी के उदय के बाद स्वाधीनता आंदोलन का एक नया स्वरूप सामने आया। उसमें इस क्षेत्र के लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। 2 फरवरी,1929 को आज़मगढ़ में मो0 सुलेमान नदवी की अध्यक्ष्ता में कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ जिसमें मऊ के लोगों की सहभागिता उल्लेखनीय थी। इसके पूर्व 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन में भी इस क्षेत्र के लोगों ने प्रभावशाली ढंग से भाग लिया। अलगू राय शास्त्री तथा बलदेव चौबे के नेतृत्व में महेन्द्र मिश्र, रामजतन सिंह, मुसाफिर सिंह सहित सैकड़ों व्यक्ति गिरफ्तार किये गये। 1923 में काशी विद्यापीठ के स्नातक बने इसी मिट्टी की उपज अलगू राय शास्त्री ने तो आगे चलकर राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलनों का नेतृत्व किया। इस क्षेत्र में स्वाधीनता आंदोलन को संगठित रूप देने के लिए 26 नवम्बर,1929 को आज़मगढ़ में एक वृहद सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे पं. मोतीलाल नेहरू ने सम्बोधित किया था। इसके 9 वर्ष बाद 3 अक्टूबर,1939 को महात्मा गांधी दोहरीघाट आये थे। उसके पूर्व 1936 में पं. जवाहर लाल नेहरू ने मऊ में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया था। अक्टूबर,1940 में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के इस क्षेत्र में आगमन ने जनपद के क्रांतिकारियों में नये उल्लास का संचार किया और वे मादरे वतन की आजादी के जंग में जोशो-खरोश से जुड़ गये। 06 अप्रैल 1930 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जब दांडी में नमक बनाकर अंग्रेजों का काला कानून तोड़ा, उस समय प्रदेश में इसकी अगुवाई पं0 अलगू राय शास्त्री ने ही किया। इस काले कानून की धज्जियाँ उड़ाने में अपना क्षेत्र भी पीछे नहीं रहा। उमराव सिंह, शिवचरण राय, सत्यराम सिंह, हरिद्वार सिंह, कल्पनाथ शुक्ल, रामचन्द्र पाण्डेय, कृष्ण माधव लाल, इब्राहिम खाँ, विश्वनाथ प्रसाद रामपलट राय, सीताराम आर्य, राम दबर सिंह, मंगला राय, दल सिंगार पाण्डेय, छोटू राम, गया प्रसाद, राज दरश राय, रामदेव राय, भागीरथी राय आदि ने घूम-घूम कर नमक कानून के विरूद्ध जनजागरण किया।

1942 की अगस्त क्रांति और तहसील-मधुबन-
यहां के निवासियों को क्रांति की कीमत 1942 में चुकानी पड़ी। 15 अगस्त,1942 का इतिहास प्रसिद्ध काण्ड आजादी की लड़ाई में मील का पत्थर साबित हुआ। मधुबन काण्ड के सिलसिले में प्रस्तुत है यहाँ एक ऐतिहासिक दस्तावेज। यह है मधुबन थाने का रोजनामचा जिसे तत्कालीन थानाध्यक्ष ने लिखा था। आजादी के विरोधी एक थानाध्यक्ष द्वारा लिखी गयी यह डायरी सुप्रसिद्ध मधुबन काण्ड के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डालती है, जो इस प्रकार है- ‘‘14 अगस्त,1942 को मुसम्मी गोरखनाथ शुक्ल, बरोहा कांग्रेसी हमराह मूरत गोड़ निवासी चैहानपुर व झिनकू मौजा हीरा पट्टी संस्कृत पाठशाला पर जा रहा था दफा 21 डीआईआर गिरफ्तार हुआ और उसी रोज बाद गिरफ्तारी रवाना सदर कर दिया गया। इसकी गिरफ्तारी का असर यह हुआ कि राम नारायण सोनार साकिन गजियापुर, रामसुन्दर पाण्डेय साकिन गजियापुर और कारकून कांग्रेस कार्यकर्ता ने इसी समय काफी तादाद असखास व पब्लिकान ने इन लोगों के साथ काफी रफ्तार में इकठ्ठे हुए। थाने पर हमलावर होने के चले कि गोरखनाथ शुक्ल को छुड़ा लिया जाये और थाना पर हमला किया जाये। दिनांक 13 अगस्त 1942 को परमी डम्मर बाबा थाना उमांव जिला बलिया में एक मेला था। वहीं पर गुण्डों और गैर जिम्मेदार असखास से प्रोग्राम बनाया गया। 14 अगस्त 1942 को बेल्थरा रोड स्टेशन लूट लिया गया और यह प्रोग्राम के मालूम मुताबिक 14 अगस्त 1942 को बेल्थरा रोड स्टेशन जला दिया गया और लूटा गया और मालगोदाम व चीनी-चोटा गल्ला लूट लिया गया और इस वाक्या ने लोगों की हिम्मत को बढ़ा दिया।’’ पब्लिकान वही थी जिससे 14 अगस्त 1942 की सबसे कसीर तादाद मौजा दुबारी में इकठ्ठा हुआ और मजमा की खबर मुझ सब इंस्पेक्टर को मिली और वइमदाद ठा0 कौड़ी सिंह जमींदार दुबारी हिकमत अली से किसी तौर पर थाना पर हमला नहीं होगा। लेकिन तमाम मुमकिन इंतजाम थाना पर कर लिया गया और अफसरान आला को खबर कर दी गयी। चौकी रामपुर से मुलाजमान चैकी स्टेशन हाजा पर पहुँचे तो उनकी जबानी मालूम हुआ कि एक बहुत बड़ी भीड़ गाते-बजाते कांग्रेसी झण्डा लिए चौकी रामपुर व डाकखाना रामपुर फूँकते हुए व लुटने फूँकने आ रही है। वहां कामयाबी के बाद घोसी रेलवे स्टेशन तहसील, डाकखाना व थाना लूटते-फूंकते मुहम्मदाबाद तहसील लूटते हुए जिला आज़मगढ़ कब्जा करना है। जिस पर चैकीदार व मुलाजमान ऐसे कलील वक्त में मुहइया हो सके थे। थाना के महफूज का इंतजाम किया गया। खुश किस्मती से जब सब इंतजाम हो चुका था जनाब मिस्टर आर0एच0 निबलेट साहब बहादुर मजिस्टेªट जिला आज़मगढ़ व जनाब सुपरिटेण्डेण्ट ठाकुर सुदेश्वरी सिंह इंस्पेक्टर हल्का मौजूदा डिप्टी सुपरिटेण्डेण्ट साहब बहादुर पुलिस व दो नफर कांस्टेबिल आये पुलिस स्टेशन हाजी शरीक हो गया व वाकियात को सुनकर तहत इंतजाम में मशरूफ हुए। करीब दो बजे चारों तरफ से एक हजार भीड़ के साथ मजमा मुसल्लह इकठ्ठा होने लगा और मजमा में मुसमियान मंगल देव पाण्डेय शास्त्री बरोहा व रामबृक्ष चौबे कमल सागर नुमाइन्देगान मुझ सब इंस्पेक्टर के पास आये स्टेशन हाजा पर झण्डा कांग्रेसी फहराने के लिए और दफ्तर का कागज हवाला करने के बावत पेशकश की इंकार पर बहुत गुफ्तगू के बाद वापस गये। फिर मजमा खिलाफ कानून डाकखाना मधुबन व मवेशी खाना और औषधालय वैद्य पर हमला होकर लूटना-फूँकना शुरू किये और हमलावियों जो छः हजार से कम की तादाद में नहीं थे, बल्लम, फरसा, कुदाल, रेती, आरी, हथौड़ा व ढेलों से मुसल्लह थे। एकाएक थाने पर हमलावर हुए और समझाने-बुझाने पर भी अपने फेल से बाज नहीं आये और जनाब कलेक्टर बहादुर को गोली चलाने का हुक्म देना पड़ा और गोली चलना शुरू हुई और करीब दो घण्टा तक बगावत जंग रही जिसमें कई लाश स्टेशन हाजा में छूट आयी और हवालातियों में से बहुत से आदमी मजरूर व हलाक हुए। करीब 9 बजे रात तक थाना हमलाइयों से साफ हुआ तब भी थाना खतरे से खाली नहीं था और हमलावरों ने इस दौरान घोसी सड़क काट डाला ताकि कलेक्टर साहब यहाँ से जिला बाहर न हो सके। यह सूरत तीन रोज तक कायम रहा, यहाँ तक कि काफी इमदाद नहीं पहुँच सकी। 17 अगस्त सन् 1942 को जब कि जनाब कलक्टर साहब महदूर सिविल जेरे निगरानी अफसरान घोसी तशरीफ ले जा रहे थे रात में बागियों की एक टोली जो एक हजार से कम न थी फल मोहन पर हमला किया लेकिन उनकी समझदारी व समझ बूझ से उनका बाल बाँका न हो सका। हमलावर उस वक्त तक जब तक की फौजी इमदाद नहीं पहुँची, मुलाजमान का बाहर निकलना खतरा रहा। मुकदमा कायम होकर तफतीस हुई जिससे हसब जैल असखास को सजा हुई असखास बागी का यादास्त हस्ब जैल हैं। 14 अगस्त सन् 42 को दर्ज किया गया।(इसके बाद वारदात में शामिल 98 लोगों का नाम दर्ज है।)
थाने की उक्त तहरीर एक पक्षीय है। भीड़ निहत्थी थी तथा वह थानेदार के अत्याचार का विरोध कर रही थी और वहाँ तिरंगा झण्डा फहराना चाहती थी। लेकिन हठधर्मी अधिकारियों ने निहत्थे लोगों पर गोलियाँ बरसा दी। मधुबन में 13 आजादी के दीवाने शहीद हुए जिनके नाम इस प्रकार हैः- राम नक्षत्र पाण्डेय, मुन्नी कुमार, विभूति सिंह, रमापति तिवारी, हनीफ दर्जी, सुमेर गड़ेरी, कुमार माॅझी, लच्छनपति कोइरी, बनवारी, बंधु नोनिया, राजदेव कान्दू, शिवधन हरिजन, रघुनाथ भर।
मधुबन काण्ड की गूँज पूरे देश में सुनी गयी। आस-पास का समूचा इलाका अंग्रेजों की मुहिम में शामिल हो गया। पूरे जनपद में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। अंग्रेजों के विरूद्ध आंदोलन व प्रदर्शन करते हुए जनपद मुख्यालय पर दुक्खीराम व कालिका प्रसाद भी 15 अगस्त सन् 1942 को पुलिस की गोलियों से शहीद हो गये।

पिपरीडीह ट्रेन काण्ड-

स्वाधीनता सेनानियों के समक्ष आन्दोलन चलाने में धन की विकट समस्या थी। किसी तरह गाड़ी चल रही थी। आन्दोलन को गति देने के लिए 1938 में जय बहादुर सिंह ने जनपद के पिपरीडीह स्टेशन के समीप टेªन रोककर लूटने की गुप्त योजना बनाई तथा अपने साथी कृष्णदेव राय, जामिन अली, उदयनारायण दूबे, केशव शुक्ल, बीकेश्वर दत्त, जगन्नाथ मिश्र, तेज प्रताप सिंह के साथ इसे अंजाम दिया।

 खुरहट स्टेशन फूंका गया-

मधुबन काण्ड से उत्तेजित क्रांतिकारियों ने रामशरण शर्मा के नेतृत्व में खुरहट स्टेशन पर हमला बोल दिया। वहाँ के कर्मचारियों ने क्रांतिकारियों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया तो क्रांतिकारियों ने उन्हें बाहर निकाल कर वहाँ आग लगा दी। इसी क्रम में मऊ को मोहम्मदाबाद से जोड़ने वाले पुल को तोड़ने की कोशिश की गयी लेकिन मऊ से पुलिस आ जाने के कारण क्रांतिकारी इधर-उधर हो गये इस सिलसिले में शिवराज राय व फूलचन्द उपाध्याय को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।

 कल्याणपुर में आन्दोलन-

15 अगस्त 1942 को ही घोसी व कोपागंज के मध्य कल्याणपुर के सामने ही सत्यराम सिंह के नेतृत्व में रेलवे लाइन की पटरी व टेलीफोन के तार उखाड़ दिये गये, इस घटना की पुनरावृत्ति 1943 के जनवरी माह में भी हुई जिसका नेतृत्व दल सिंगार पाण्डेय ने किया था।

      अमिला काण्ड-

जनपद की टाउन एरिया अमिला भी क्रांतिकारी गतिविधियों से अछूती नहीं रही। अलगू राय शास्त्री का घर अंग्रेजों ने फूँकवा दिया था जिसकी पूरे क्षेत्र में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई थी। उसी गांव के निवासी झारखण्डे राय भी थे जो आगे चलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता बने। 15 अगस्त 1942 को अमिला में राधे राय, रामचंद्र राय, बलदेव राय, पटेश्वरी राय के निर्देशन में सैकड़ों की संख्या में क्रांतिकारियों ने अमिला टाउन एरिया को जला कर राख कर दिया था। इस सिलसिले में पटेश्वरी राय को दो वर्ष की कैद तथा 15 बेत की एवं रामशंकर राय को 6 माह की कैद हुई थी।

दोहरीघाट में क्रान्तिकारी आयोजन-

मध्य दोहरीघाट कस्बे के निकटवर्ती गांवों में रामपुर धनौली, गोठा, बुढ़ावर, ठाकुरगांव, सरया, पतनई, पुरौली आदि के देशभक्त कार्यकर्ताओं की उग्र भीड़ ने 16 अगस्त 1942 को दोहरीघाट डाकखाना, डाकबंगला, रेलवे स्टेशन, सरकारी इमारतों को तोड़ने-फोड़ने के बाद जला दिया, रेलवे की पटरियाँ उखाड़ दी गयी। गोंठा के दक्षिण पक्की सड़क पर की पुलिया तोड़ दी गयी, चिउटीडांड़ के पास सड़क को काट कर मार्ग को अवरूद्ध कर दिया गया।

   मोहम्मदाबाद गोहना का क्रांतिवीर-

17 अगस्त 1942 को मुहम्मदाबाद-खुरहट के बीच रेलवे लाईन उखाड़ने तथा दूरसंचार भंग करने का काम व्यापक स्तर पर किया गया। समूचे क्षेत्र की जनता वहाँ पहुँच गयी थी, जिसका नेतृत्व कादीपुर के रामधारी राय ने किया था। श्री राय को ढाई साल की सजा मिली। तत्कालीन कलक्टर मि0 स्टूवर्ट ने उन्हें जेल में लाठियों से पिटवाया। हर लाठी पर श्री राय बन्देमातरम् व भारत माता की जय बोलते रहे। जेल से छूटने के बाद वे पत्रकारिता के क्षेत्र में चले गये और नव भारत टाइम्स के सहायक सम्पादक के रूप में सेवा निवृत्त हुए। आजादी मिलने के बाद उन्होंने सरकार से मिलने वाली जमीन को यह कह कर ठुकरा दिया कि माँ की सेवा का मोल नहीं लूँगा।

 पिपरीडीह-इंदारा स्टेशन पर आन्दोलन-

21 अगस्त 1942 को रामलखन सिंह, श्याम नरायन सिंह, अवध नरायन सिंह के नेतृत्व में आन्दोलनकारियों के एक जत्थे ने मऊ-पिपरीडीह स्टेशन के बीच रेलवे लाइन तथा खम्भों को उखाड़ कर रेल व्यवस्था तथा संचार को ठप कर दिया। इसके पूर्व 17 अगस्त को इंदारा स्टेशन फूँक दिया गया। मौके पर गोरी पुलिस द्वारा चलाई गयी गोली से तीन क्रांतिकारी मारे गये तथा कई घायल हो गये।

दोहरीघाट हरिजन गुरूकुल की बर्बादी-
आज़मगढ़ के तत्कालीन जिलाधिकारी मि0 हर्डी तथा कप्तान मि0 बींग के नेतृत्व में आयी अंग्रेजी फौज ने दोहरीघाट के हरिजन गुरूकुल में लूट पाट किया तथा सारे इमारत में आग लगा दी। गुरूकुल के कार्यकर्ता देवपती सिंह, क्षमानंद, सुखराज, स्वामी सत्यानंद को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया।

    मऊ क्रान्ति के अन्य केन्द्र-

जनपद मुख्यालय से 5 कि0मी0 उत्तर पश्चिम तमसा नदी के निर्जन एवं बीहड़ स्थान में स्थित बेराटपुर तथा इसी गांव के ठीक सामने नदी उस पार लगभग दो कि0मी0 दूर फैजुल्लाहपुर ग्राम सन् 1942 की क्रान्ति के समय आन्दोलनकारियों के गुप्त अड्डे थे जहाँ क्रान्तिकारी योजनाएं बनाते थे। अमर शहीदों की कुर्बानी रंग लायी और अन्ततः 15 अगस्त,1947 की सुबह आयी। स्वाधीनता का उजाला लिये हुए। भारत आजाद हुआ। इस आजादी के लिए मधुबन में जिन अमर बलिदानियों ने अपना प्राणोत्सर्ग किया उनकी स्मृति एक भव्य शहीद स्तम्भ बनाया गया है जो हमें अपनी आजादी को अक्षुण्य बनाये रखने की सतत् प्रेरणा देता रहेगा। इस शहीद स्थल पर प्रतिवर्ष मेला लगता है। जगदंबा प्रसाद मिश्र हितैषी ने लिखा है कि…
शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले,
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा।।

           इस प्रकार भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक लंबा और गौरवशाली इतिहास है। जिस समय यहां विदेशी शक्तियों का शासन रहा है, उस समय भारत के लोगों में असाधारण एकता देखी गई है, चाहे वे किसी भी राज्य, धर्म, जाति या नस्ल के हों। फिर भी दिल है हिंदुस्तानी का भाव सबके हृदय में था। यही कारण है कि इसे 'अनेकता में एकता' की उपाधि का गौरव प्राप्त है और यही बात भारत को दुनिया में उत्तम, आदर्श एवं अद्वितीय बनाती है।

1- “Uttar Pradesh in Statistics,” Kripa Shankar, APH Publishing, 1987, ISBN 9788170240716
2- “Political Process in Uttar Pradesh: Identity, Economic Reforms, and Governance Archived 2017-04-23 at the Wayback Machine,” Sudha Pai (editor), Centre for Political Studies, Jawaharlal Nehru University, Pearson Education India, 2007, ISBN 9788131707975
3- जिला प्रशासन द्वारा स्वामित्व वाली सामग्री NIC, Mau
4- Wikipedia
5- कविता कोश
6- क्षेत्रीय लोगों से बातचीत पर आधारित

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रचनाकार

Author

  • डॉ प्रदीप कुमार सिंह

    असिस्टेंट प्रोफेसर-प्राचीन इतिहास.मऊ-उत्तर प्रदेश. Copyright@डॉ प्रदीप कुमार सिंह/इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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